हाट कालिका गाथा : गंगावली की सिंह वाहिनी तेरी जयकार माँ चन्द्रवदनी

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सदियों से पूजनीय दरबार, जहां पापात्मा नही पहुंचते

गंगोलीहाट की हाट कालिका माता का दरबार सदियों से श्रद्धा आस्था व विश्वास का संगम रहा है देवी के इस दरबार में पहुंचते ही श्रद्धालुजनों में आध्यात्मिक उमंग की अद्भूत आभा झलकती है हाट कालिका के दर्शन का सौभाग्य माता कालिका की कृपा से ही प्राप्त होता है क्योंकि व्यास जी ने पुराण में स्पष्ट रूप से वर्णित किया है।उनके समक्ष पापात्मा नहीं जा सकते।

पापात्मानो महाकालीं न द्रष्टुं शक्नुवन्ति हि’

अर्थात् यह दरबार महा जागृत शक्ति पीठ है इसके दर्शन करने वाला परम शौभाग्य शाली माना जाता है शुम्भादि दैत्यों का बध करने वाली इस भगवती की महिमां का वर्णन करते हुए व्यास जी ने कहा है जिसने ‘शैल’पर्वत-वासिनी काली का पूजन कर लिया वह इस लोक और परलोक में सुख-समृद्धि से पूर्ण हो जाता है। जो विधि पूर्वक विधान से गन्ध, पुष्प, अक्षत एवं उपहार सहित देवी का पूजन करते हैं, उनकी दुर्गति नहीं होती। ग्रहों, रोग और शत्रुओं का भय भी नहीं होता।

शैले यैः कालिका देवी पूजिता मुनिसत्तमाः धनधान्यादिभिः पूर्णा भवन्तीह परत्र च’

दुर्गति का नाश करती है देवी

दुर्गति के उपाय के निवारण के लिए शैल पर्वत की कालिका के अतिरिक्त और कोई नही है स्पष्ट रूप से वर्णित है

दुर्गते स्तरणोपायं नास्त्यन्यन्मुनिसत्तमाः सन्त्यज्य कालिकों देवी शैलवासां हरिप्रियाम्

देवी के पावन चरित्रों में शैल पर्वत वासिनी काली की जो गाथा गायी गयी है वह अतुलनीय है

तावत् क्षेत्राणि सर्वाणि देव्याश्चान्यानि वै द्विजाः। कथितानि पुराणादौ यावच्छलं न वणितम्

सब पापों व भयों की विनाशक हाट कालिका दरबार में की गयी आराधना व पूजा का फल भी अक्षय कहा गया है यही कारण है कि संसार के समस्त कार्यो की सिद्धि का स्रोत भगवती का यही भवन है देवी महात्म्य में वर्णन आता है
शैल’ पर्वत के वर्णन होने के पहले तक ही ‘देवी’ माहात्म्य अन्य पुराणों में वर्णित है।

माता पार्वती से सम्बध रखने वाले स्थानों के बारे में महर्षि व्यास जी ने कहा है ‘शैल’ पर्वत के उत्तम प्रदेश पर कालिका विराजमान हैं। ये वे ही कालिका है जिन्होंने पहले ‘कौशिकी’ नाम से ‘चण्डमुण्ड’ वध तथा ‘रक्तबीज’ का रुधिर-पान किया था। वह काल को भी कवलित करने वाली एवं दैत्यों का नाश करने वाली ‘काली’ ‘शैल’ पर्वत पर विराजमान हैं। देवी ‘त्रिशूल’, ‘पट्टिश’, ‘पाश’, ‘मुद्दगर’, ‘शक्ति’ आदि धारण करने वाली घोररूपा विशालाक्षी होने के साथ ही भक्तों के लिए वरदा ‘काली’ हैं। उहोंने ‘शैल’ पर्वत के पूर्व भाग में वास किया है। वह देवताओं की मुख्य शक्तियों’, सोलह ‘मातृकाओं’ तथा ‘विद्याधरों’ से सेवित हैं।

काली के प्रकट होने की कथा एंव देवताओं द्वारा स्तुति

शैल पर्वत पर माता कालिका के प्रकट होने की कथा का वर्णन करते हुए वर्णित किया गया है कि दैत्यों के अत्याचार से त्राहिमाम देवताओं ने यही माता की स्तुति की हाट कालिका की यह स्तुति समस्त भयों से रक्षा करती है देवताओं के हृदय से प्रकट हाट कालिका की सुन्दर स्तुति इस प्रकार वर्णित है

देव्या यया त्रिभुवनं सचराचरं च व्याप्तं विर्भषि भुवनं च चराचरं च शेष फणाशतशतैरपि नम्रभूतो सा वै धराधरसुताऽवतु देवपालम्
संस्तुता या महादेवी ब्रह्मणा परमेष्ठिना योगनिद्रेति विख्याता विष्णोरतुलतेजसः यया त्यक्तो जगन्नाथो जघान मधुकैटभो
आत्मकर्णमलोद्भूतौ मोहितौ योगमायया साऽस्मानवतु कल्याणी शुम्भदैत्येन निजितान् ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां तेजोराशिसमुद्भवा संस्तुता देवगन्धर्वे दिव्यशूलप्रहारिणी कल्याणी महिषासूरनाशिनी
दक्षप्रजापतेगेहे अवतीर्य मनोरमा
*या काली गीयते लोके साऽस्मानवतु

अर्थात् जिस देवी ने चराचर जगत् को व्याप्त कर धारण किया है तथा जिन्हें देख ‘शेष’ भगवान् भी अपने असंख्य फनों को नीचे झुका कर नम्र हो जाते हैं, वह पर्वतराजपुत्री हम सब की रक्षा करें। ब्रह्मा ने भी अपनी रक्षा के लिए जिनकी स्तुति की थी’ । जिन्होंने अतुल पराक्रमी विष्णु भगवान् के कान के मैल से उत्पन्न ‘मधु’ और ‘कैटभ’ नामक राक्षसों को भी भगवान् के नेत्रों में स्थित निद्रारूपी ‘योगमाया’ बनकर निद्रा का त्याग कराने के पश्चात् विमोहित करा उन दोनों राक्षसों का विष्णु के द्वारा ही वध कराया, वह भगवती हमारी रक्षा करें। जो भगवती समग्र देवों के तेजःपुञ्ज से प्रकट हुईं एवं दिव्य शूल से महिषासुर का नाश करने वाली हैं-वही जगज्जननी हमारी रक्षा करें । दक्ष प्रजापति के घर आविर्भूत हो जो ‘काली’ के नाम से विख्यात हुई। वही हमारी रक्षा करें

हाटकालिका की इसी स्तुति से प्रसन्न होकर माता काली ने शैल पर्वत पर प्रकट होकर देवताओं के कार्य को सिद्ध किया

ब्रह्मा जी द्वारा कालिका का वंदन

मधु व कैटभ नामक राक्षसों का बध भी इन्हीं की कृपा से हुआ जब-जब देवताओं पर घोर संकट आया उन्होंने माँ काली की ही पूजा की। इसी तरह का मूल-भूत प्रसंग ‘‘दुर्गासप्तशती’’ में देखने का मिलता है –
प्रलयकाल में सम्पूर्ण संसार के जलमग्न हो जाने पर भगवान विष्णु शेष शय्या पर योग निद्रा में सो रहे थे, उसी समय भगवान के कर्णकीट से उत्पन्न मधु-कैटभ नामक दो राक्षस उत्पन्न हो गये। वे ब्रह्मको मारने के लिये उद्यत हो गये। उनकी भीषण शक्ति को देखकर ब्रह्मा जी ‘‘ माँ भगवती काली मां’’ की स्तुति करने लगे- हे काली माँ महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति महामोह रूपा, महादेवी तथा महेश्वरी भी तुम ही हो, तीनों गुण तुमसे ही उत्पन्न होते हैं। तुम ही भंयकर कालरात्रि महारात्रि तथा मोहरात्रि भी हो। हे देवि! तुम ही खड्ग और शूल को धारण करने वाली घोर रूपा हो, तुम गदा, चक्र औ धनुष धारिणी तथा वाण भुशुण्डी परिध नामक अस्त्रों से युक्त हो तुम सौम्य ही नहीं सौम्यतर हो। संसार में जितने भी पदार्थ हैं उन सबमें आप सबसे सुंदर हो, जहां कीं सत-असत तथा उन पदार्थों की शक्ति है, वह सब तुम ही हो। इस स्थिति में तुम्हारी क्या स्तुति की जा सकती है। हे माँ इन दोनों अति दुघर्ष मधु कैटभ को मोह में डालकर जगदीश्वर विष्णु को जाग्रत करो और इन असुरों को मारने की बुद्वि प्रदान करो। हमारी रक्षा करो, हमारे सारे मनोरथ पूर्ण करो।
इस प्रकार इस तरह की अराधना करने पर माँ काली प्रत्यक्ष रूप से सामने खड़ी हो गयी। माँ काली ने राक्षसों की बुद्वि मोहित कर दी। जिससे वे अहंकार में आकर कहने लगे – हम तुम्हारी युद्व कला से खुश हुए हैं। मनचाहा वर मांगों भगवान कहने लगे- यदि तुम वर देना ही चाहते हो मुझे यह वर दीजिये कि तुम दोनों मेरे द्वारा ही मारे जाय। मधु कैटभ ने तथास्तु कहकर यह कहा जहां पृथ्वी जल से ढकी हो वहां हमें मत मारना। अन्त में भगवान ने उनके सिरों को अपनी जंघाओं पर रखकर चक्र से काट डाला। इस प्रकार देवकार्य सिद्व करने के लिये उस सच्चिदानन्द स्वरूपपिणी चित्त शक्ति ने महाकाली का रूप धारण किया।

आसपास के तीर्थों व महिमां

हाट कालिका मन्दिर के आसपास की पर्वत श्रृंखलाओं में देवी के चरित्रों को समेटे अनेक शक्ति स्थल मौजूद रौद्र रूपा महाकाली के दर्शन के पश्चात शान्त स्वरूपा अम्बिका देवी के दर्शन व पूजन का महत्व स्कंद पुराण में आया है

जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट तहसील के अंतर्गत कोठेरा गाँव में स्थित आदि शक्ति माँ अम्बिका देवी का दरबार आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण स्थान है। सदियों से परम आस्था का केन्द्र रही देवी की यह पावन भूमि परम पूज्यनीय है। सुन्दर मनोहारी पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में स्थित इस मन्दिर के चारों ओर का
आभामण्डल बरबस ही यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है

शैल पर्वत वासिनी कालिका माता के प्रसंग में माँ अम्बिका देवी की महिमां का वर्णन वर्णित है पुराणों के अनुसार हाट कालिका के दर्शन व पूजन के पश्चात माँ अम्बिका के दर्शन व पूजन का महत्व समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाला कहा गया है इस देवी के दर्शन व पूजन का फल अभिष्ट बताया गया है।
यहाँ देवी की शिव व शक्ति दोनों रूपों में पूजा होती है इस स्थान पर पिण्डी स्वरूप में देवी के दर्शन होते है अंबिका माता को अम्बा, भगवती,ललिताम्बिका,भवानी,और महामाया जैसे नामों से भी जाना जाता है।
‘शैल’ पर्वत के प्रकृष्ट प्रदेश में निवास करने वाली इन्द्र से पूजित चन्द्रवदनी ‘अम्बिका महादेवी का विधिपूर्वक पूजन कर मनुष्य निःसन्देह इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है।

ततोअम्बिका महादेवी शैलो देश निवासिनिम् सेवितां देवराजेन चन्द्राबिम्ब निभाननाम्
सम्पूज्य विधिवद विप्रा गन्धपुष्पाक्षतैः शुभै :।
मानवोऽभीप्सितान् कामानवाप्नोति न संशयः

हाटकाली के दर्शन के पश्चात् शीतला माता व मुक्तीश्वर महादेव के दर्शन का महत्व भी सुन्दर शब्दों में वर्णित है ये दोनों पावन क्षेत्र माता कालिका के सानिध्य में ही स्थित है

शैलदेशो ततो विप्राः कन्दरा देवसेविता विद्यते शीतला पाशर्वे मुक्तिदा पापनाशिनी तत्र मुक्तेश्वरो देवो मुक्तिमण्डलमध्यगः। राजते देवगन्धर्वैः सेवितः सुमनोहरः

नमामि शीतलां देवीं शैलपर्वतवासिनीम्। केयूरहारबलितां शोभितां चन्द्रशेखराम्

आदि अनेक श्लोको से शीतला महात्म्य का वर्णन किया गया है और कहा गया है महेन्द्र के द्वारा आवाहित एवं पूजित, ‘शीतला’ शब्द के उच्चारण करने से विस्फोटकादि अनेक रोग दूर हो जाते हैं। ‘शीतला’ महादेवी की पूजा करने वाले को भी विस्फोटकादि भय नहीं होता। शीतला का पूजन करने से ‘शिव’लोक प्राप्त होता है ।

चीरधारिणी ‘शीतला’ का स्मरण कर मनुष्य सब रोगों से मुक्त हो जाता है। केवल ‘शीतला’ शब्द का उच्चारण करने से भी रोग-भय प्राप्त नहीं होता । ‘शैल’ पर्वतवासिनी ‘शीतला’ का पूजन या स्तुति करने से घोर विस्फोट का भय नहीं रहता

हाट कालिका की महिमां के साथ ही मुक्तेश्वर महादेव का वर्णन पुराणों में आया है कालिका के दर्शन व पूजन की परिधि में इनकी पूजा व दर्शन का भी विधान है इस सम्बन्ध में व्यास जी ने लिखा है
शीतला’ के पश्चिम में देवों से सेवित एक गुफा है। उसमें मुक्तिमण्डलमध्यवर्ती ‘मुक्तीश्वर’ देव विराजमान हैं। वह असख्य पापों का नाश करले के लिए शैलपर्वस्थ कन्दरा में प्रतिष्ठित हैं। उनके दर्शन से दुर्लभ मुक्ति मिलती है। वहाँ मुक्तिप्रद जल में स्नान कर पूजा करने से ऐश्वर्य प्राप्त होने के साथ ही शिवलोक में शिव-सायुज्य मिलता है।

 

हाट कालिका दरबार के आसपास अनेकों शक्तिस्थल व शिवालय मौजूद है जिनका वर्णन हाट कालिका महात्म्य में विस्तार के साथ पुराणों में पढ़ा जा सकता है

जिनमें ‘जयकरी’ देवी की व ‘शैल’ पर्वत के पश्चिम में ‘चण्ड’ ओर ‘मुण्ड’ की विनाशिका ‘चामुण्डा’ का विधिपूर्वक पूजन करने का विधान भी हाट कालिका दर्शन माला का ही हिस्सा है इसके आलावा भृगु पर्वत पर भृगु ऋषि व पाताल भुवनेश्वर में भुवनेश्वर पूजन सहित तमाम देवी देवताओं का पूजन काली पूजन की परिधी का ही हिस्सा है

सौंदर्य से भरपूर स्थल

कुल मिलाकर जनपद पिथौरागढ़ में गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के मध्य प्राचीन माँ भगवती महाकाली का अद्भुत मंदिर को चाहे धार्मिक दृष्टि से देखें या पौराणिक दृष्टि से हर स्थिति में यह आगन्तुकों का मन मोहने में पूर्णतया सक्षम है। उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर की पुराण में वर्णित गाथाओं के अलावा दंतकथाओं के रोचक किस्सों को सुनकर भक्तों का हृदय भाव से भर आता है पवित्र पहाड़ों की गोद में बसा हरे भरे वृक्षों के मध्य स्थित यह मंदिर भक्तजनों के लिये जगत माता की ओर से अनुपम भेंट है। यहां श्रद्वा एवं विनयता से की गयी पूजा का विशेष महात्म्य है। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्वालु पहुंचते हैं

शंकराचार्य हुए धन्य

महाकालिका की अलौकिक महिमा के पास आकर ही जगतगुरू शंकराचार्य ने स्वयं को धन्य माना प्रातःकाल मंदिर में जब महाकाली की गूंज, शंख, रूदन और नगाड़ों की रहस्यमयी आवाजें निकलती हैं, तत्पश्चात यहां पर भक्तजनों का ताता लगना शुरू होता है। सायंकालीन आरती का दृश्य भी अत्यधिक मन मोहक रहता है। जिसे देखकर ऐसा मालूम पड़ता है।मानो घरती पर र्स्वग उतर आया हो

सुंदरता से भरपूर इस मंदिर के एक ओर हरा भरा देवदार का आच्छादित घना जंगल है। तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की हरियाली भरी घाटियां विशेष रूप से नवरात्रियों व चैत्र मास की अष्टमी को महाकाली भक्तों का यहां पर विशाल ताता लगा रहता है। इन पर्वों को उत्तराखण्ड सहित देश के अनेक भागों के भक्तजन यहां महाकाली के दर्शनार्थ आते हैं, ये ही ऐसे पर्व हैं जब क्षेत्र के प्रत्येक गांव से कामकाजी महिलाओं को अपने नन्हें-मुन्नें बच्चों के साथ गंगोलीहाट बाजार जिन्हें ग्रामीण महिलायें ‘हाट कौतिक’ के नाम से पुकारती हैं, आने का मौका मिलता है और वे सर्वप्रथम कालिका के दरबार में माथा टेककर चरणामृत लेकर, बाजार परिसर व हाट से खरीददारी करती हैं। मंदिर परिसर में भजन-कीर्तन व भण्डारा के लिये हाल बने हुये हैं।
आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धरण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जागनाथ व भुवनेश्वर वागीश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सीधे प्रातः तक यमलोक पहुंच चुका होता था।
आदि जगत गुरू शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गये। लेकिन जब विश्राम के उपरान्त शंकराचार्य ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर शक्ति परिसर में जाने की इच्छा प्रकट की तो मंदिर शक्ति स्थल पर पहुंचने से ही कुछ दूर पूर्व तक ही स्थित प्राकृतिक रूप से निर्मित गणेश मूर्ति से आगे वे नहीं बढ़ पाये और अचेत होकर इस स्थान पर गिर पड़े व कई दिनों तक यही पड़े रहे उनकी आवाज भी अब बंद हो चुकी थी। अपने अंहभाव व कटु वचन के लिये जगत गुरू शंकराचार्य को अब अत्यधिक पश्चाताप हो रहा था। पश्चाताप प्रकट करने व अन्तर्मन से माता से क्षमा याचना के पश्चात माँ भगवती की अलौकिक आभा का उन्हें आभास हुआ।
चेतन अवस्था में लौटने पर उन्होंने महाकाली से वरदान स्वरूप मंत्र शक्ति व योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किये और महाकाली के रौद्रमय रूप को शांत किया तथा मंत्रोचार के द्वारा लोहे के सात बड़े-बड़े भदेलों से शक्ति को कीलनं कर प्रतिष्ठिापित किया। अष्टदल व कमल से मढ़वायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है।

चमत्कारिक है मंदिर निर्माण की कथा

चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्र चण्ड़ी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंड़ी महायज्ञ, का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। जब मंदिर में सतचण्डी महायज्ञ आयोजित होते हैं। तब कालिका दरबार की आभा देखने लायक होती है। 108 ब्राह्मणों द्वारा प्रतिदिन शक्ति पाठ की गूंज से यूं मालूम पड़ता है। मानों समस्त देवता शैल पर्वत पर आकर रहने लगे हों। चातुरमास में आयोजित होने वाला तस्मै ;खीर भोग रावल उपजाति के वारीदारों द्वारा लगाया जाता है। इस अवसर पर मंदिर में अर्ध रात्रि में भी भोग लगाने की प्रथा है। यह भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है।
इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं। जो क्रमवार से उपस्थिति देकर बारीदारी का हक निभाते हैं। मंदिर में पूजा अर्चना का कार्यक्रम सम्पन्न कराने के लिये अर्ग्रोन गांव के पंत लोग उपस्थित रहते हैं। उनकी अनुपस्थित में यह दायित्व हाट गांव के पाण्डेय निभाते हैं।
सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात् यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, सम्पत्तिहीन सम्पत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से पधारते हैं व मनोकामना पूर्ण पाते हैं।

इस मंदिर के निर्माण की कथा भी बड़ी चमत्कारिक रही है। महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले में से नागा पंत के महात्मा जंगम बाबा जिन्हें स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। वे रूद्र दत्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिये मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे समस्या आन पड़ी मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी धूनी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुये उन्होंने दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड़ की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोड़ी ही खुदान के पश्चात संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिवमंदिर, धर्मशाला एवं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वतः ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तरासे हुए पत्थर मिले। कितना आलौकिक चमत्कार था यह माता काली का जिस चमत्कार ने सहजता के साथ इस समस्या का निदान करवा दिया। महान योगी जंगम बाबा ने एक सौ बीस वर्ष की आयु में शरीर का त्याग किया।
बीसवी सदी के चौथे दशक में गोविन्द दास नामक महासंत ने यहां कालिका की आराधना की आजादी से पूर्व यह दो नदियों के बीच का प्रदेश गंगावली मोटर यातायात से विहीन था। पैदल यात्रा से यात्री यहां की नैसर्गिक सौंदर्य का आनन्द लेते थे। शक्ति पीठ में सहत्रघट का जब कभी पूर्व में आयोजन होता था। तो सरयू व रामगंगा नदी से भक्तजन जयकारे के साथ गागरों में पानी लाते थे। इसके अलावा नौलों,जल धारों से भी ताबें की गंगरियों में जल लाकर के शक्तिपीठ में जलाभिषेक किया जाता था। पूरे दिन चलने वाले इस कार्यक्रम में गंगावली की वादियों का नजारा दिव्य लोक सा मालूम पड़ता था। सहत्रघट आयोजन तब किया जाता था, जब लम्बे समय से वर्षा नहीं होती थी। दिन भर यह कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात सायंकाल के समय घनघोर मेद्य ललाट भरे बादल जो रौद्र रूप का प्रतिबिम्ब मालूम पड़ता था। अपने साथ वर्षा की अनुपम छटा लाता था। विज्ञान के युग में भी इस परम सत्य का नजारा सहत्रघट आयोजनों के अवसर पर यहां देखा जा सकता है।

सैनिकों की आस्था का केन्द्र

एक अन्य चमत्कार के अनुसार विश्व युद्व के दौरान जब भारतीय सैनिकों से खचाखच भरा जहाज समुद्र में डूबने लगा तो उसी जहाज में इस क्षेत्र के उपस्थित एक सैनिक ने माँ का स्मरण कर डूबते जहाज को इस तरह से उबरवाया कि समुद्र की वादियों व जहाज जय श्री महाकाली गंगोलीहाट वाली की जय-जयकार से गूंज उठा तभी से भारतीय सैनिकों की इस मन्दिर के प्रति विशेष आस्था है।

बताते हैं कि गंगोलीहाट का काली मंदिर संस्कृति के महाकवि कालीदास की भी तपस्थली रही है।

भवप्रीता कल्याण रूपा सत्यानंदस्वरूपिणी माता भगवती महाकालिका का यह दरबार अनगिनत, असंख्य अलौकिक दिव्य चमत्कारों से भरा पड़ा है। जिसका वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्व किवदन्ति है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। कहते है यदि कोई व्यक्ति इस डोले को छू ले तो दिव्य वरदान का भागी बनता है।

महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का विस्तर लगाया जाता है और प्रातः काल विस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों क्योंकि विस्तर में सलवटें पड़ी रहती हैं। तामानौली के औघड़ बाबा भी कालिका के अन्यय भक्त रहे हैं। मॉं काली के प्रति उनके तमाम किस्से आज भी क्षेत्र में सुने जाते है भगवती महाकाली का यह दरबार असंख्य चमत्कार व किवदन्तियों से भरा पड़ा है

अर्जुन ने भी की स्तुति

इस प्रकार शास्त्रों में माँ काली के महत्व का विशेष रूप से वर्णन देखने को मिलता है। महाभारत का युद्व होने से पहले श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को माँ काली की अराधना करने का मार्ग सुझाया।
अर्जुन द्वारा की गयी स्तुति इस प्रकार है

नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते। चंडि चंडे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।
महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि, अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।
उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि, हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।

इसलिए कहा गया है

काली वेद जननी काली पाप नाशिनी।
काल्यास्तु पर नास्ति दिवि देह च पावनम्।।

अर्थात् काली माँ वेदों की माता है। सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली हैं। काली के अलावा पवित्र करने वाला कोई मन्त्र न तो पृथ्वी पर है और न ही स्वर्ग पर है।

काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी,
सर्वानन्द करे देवि नारायणी नमोऽस्तुते

स्वरचित
श्री महाकाली शंकराचार्य संवाद

हिमालय की गोद में बसे प्रकृत्ति की अमूल्य धरोहर गांगवली के शैल पर्वत की अलौकिक दिव्य वादियों में बैठे जगत गुरू शंकराचार्य काफी उदास थे। नागाधिराज हिमालय की चोटियों से घिरे रमणीक वनों के बीच में शांत भाव से बैठे शंकराचार्य जी के मन की झकझोरता बार-बार उन्हें व्याकुल किये जा रही थी। चारों ओर से उन्हें घेरकर बैठे भक्तजन यह नहीं समझ पा रहे थे। आखिर वह कौन सा कारण है जिसने जगतगुरू के हृदय को झकझोर कर रख दिया है। एक शिष्य ने विनम्र भाव से गुरूदेव को प्रणाम कर उनकी व्याकुलता का कारण पूछा। संसार को त्याग और तपस्या का रास्ता भगवान की भक्ति और ध्यान का रास्ता दिखलाने वाले गुरूदेव आपके दिव्य तेज से आलोकित चेहरे पर यह उदासी भरी कैसी परछाई है। जिसने आपके अस्तित्व को भावुकता के समुद्र में डुबोकर रख दिया है।

शिष्य ने भोलेपन से अपनी शंका जगतगुरू के सम्मुख रखी और उत्सुकतापूर्वक उत्तर की प्रतीक्षा के लिए उनके चेहरे की ओर देखा, जगतगुरू शंकराचार्य के आंखों में आसुओं का सैलाब आ गया बलपूर्वक उन्होंने सिसकियां रोकी और बोले जगतजननी जगदम्बा का ध्यान करने से तो परमपद प्राप्त होता है। अतुल ऐश्वर्य व मुक्ति माँ की कृपा से ही संभव है। वे समस्त जगत की माता हैं। उनके दर्शन करना ही जीवन पर विजय प्राप्त करना है। किन्तु जगदम्बा काली के दरबार में नरबलि की बात सुनकर मैंने बिना विचारे महाकालिका के प्रति जो अपमान भरे शब्द कहे तथा माँ की ममतामयी, करूणामयी, न्यायशीलता पर प्रश्न चिह्न खड़ाकर उन्हें बिना जाने पहचाने ही अपमानित कर डाला उसका मुझे भारी खेद है। अपनी वाणी से निकले

कटु शब्दों से में बेहद लज्जित व झकझोर हो उठा हूं। जागेश्वर धाम से यहां पधारे शंकराचार्य जी के मन में आखिर यह जिज्ञासा जाग ही उठी कि कुछ दूरी पर स्थित महाकाली दरबार के विराट ज्योति में धधकती ज्वाला के दर्शन किये जायें। अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने के उ‌द्देश्य से शंकराचार्य शैल शिखर की चोटी में विराजमान अपने आसन से उठ खड़े हुए और समीप ही निचले भाग में स्थित कालिका मैय्या के दरबार की ओर दर्शन की इच्छा से चल पड़े। ज्यों-ज्यों वह मंदिर के निकट की ओर कदम बढ़ाने लगे त्यों-त्यों उनके हृदय में माँ काली के प्रति अपार स्नेह का सैलाब उमड़ता जा रहा था, किन्तु एक प्रश्न उनके मन को बार-बार कौंध रहा था, कि माँ के दरबार में नरबलि की यह कैसी विचित्र परम्परा है। गंगावली की पवित्र घाटियों में पधारते ही उन्हें स्थानीय भक्तजनों ने जानकारी दी कि समीपस्थ ही माँ काली का अलौकिक दरबार है। इस बात को सुनकर जगतगुरू शंकराचार्य बेहद प्रसन्न हुए क्योंकि माँ के दर्शन की इच्छा उनके जीवन का परम लक्ष्य थी, किन्तु जब उन्हें स्थानीय भक्तों ने जानकारी दी कि यहां नरबलि की प्रधानता है तो वे उद्देलित हो उठे और ऐसी काली के अस्तित्व को स्वीकार करने से इंकार कर दिया किन्तु महामाया की प्रेरणा से अपने मुंह से माँ के प्रति निकले अपमानजनक शब्दों से वे बेहद व्याकुल थे, अपनी इस व्याकुलता को दूर करने के लिए ही वे अपने पग तीव्र वेग से ऊंची चोटी से नीचे उतरकर मंदिर की ओर बढ़ा रहे थे, कि अचानक मंदिर से कुछ ही दूरी पर प्राकृतिक रूप में स्थित गणेश जी की छोटी सी पिण्ड़ी के सम्मुख वे अचेत होकर गिर पड़े। कई दिनों तक अचेतन अवस्था में पड़े रहने के पश्चात् अचानक उनकी अचेतन अवस्था भंग हुई। किन्तु शारीरिक अक्षमता के कारण वे यहां से आगे नहीं बढ़ पाये। अब महामाया महाकालिका की महिमा से उनका हृदय माँ के प्रति निर्मल भावों से जागृत हो उठा।

जगतगुरू शंकराचार्य गद्‌गद् रोते हुए बोले। माँ तेरे वियोग में मैं बेहद व्याकुल हूं……. तेरे शिवाय मेरा इस संसार में कोई नही है। तू ही मेरा एकमात्र सहारा है। हे, अम्बिके ! हे, जगदम्बिके ! तुम तो स्वयं सिद्ध हो, मुझे दिशा दो माँ, मुझे मार्ग दो जिससे मैं तुम्हारा दर्शन कर सकूं मैं प्रतिज्ञा करता हूं माँ अब मैं कभी भी तेरे अस्तित्व व महिमा को चुनौती नहीं दूंगा। प्यास से विलख रहें शंकराचार्य इस तरह से बार-बार करूण पुकार के साथ माँ जगदम्बिके को याद किये जा रहे थे, उनके मन में आनन्द की तरंगे उठती जा रही थी, उन्हें लगा कि उनका मन दिव्य वेग से उस दिशा की ओर दौड़ रहा है। एक ओर सरयू तो दूसरी ओर रामगंगा नदी की धारा का संगीतमय स्वर एक अनहद नाद जो उनके कानों में गूंज रहा है। उन्हें लगा कि वे एक योगी हैं, दूर बहती नदी के स्वर से निकलने वाला अहनद नाद उनकी स्तुतियों में कल-कल धुन के साथ संगीत भर रहा है। प्रकृति की शांत वादियों की चुप्पी उन्हें मौन संकेत दे रही है, कि वह उठें और समाधिस्त होकर महाकालिका के ध्यान में खो जायें क्योंकि यही एक ऐसा स्थल है जहां पर किसी तरह का व्यावधान पैदा नहीं हो सकता है। जगतगुरू शंकराचार्य गद्‌गद थे। उनकी आंखों से भावातिरेक के आंसू बह रहे थे। आंखे माँ के दरबार की ओर थी तथा विराट ज्योति को ताक रही थी। उनका भावातिरेक कुछ कम हुआ तो उनकी दृष्टि सहज हो गयी मन शांत होकर फिर लौट आया जगतगुरू ने देखा माँ काली के विराट रूप ज्वालामुखी का रूप लेकर उनके कुछ दूरी पर अपनी लीला रच रही है। चारों और एक खामोशी है और उसे चीरते हुए नदी के स्वर कानों तक पहुंच रहे हैं। साथ ही झींगुर की झनकार कानों में गूंज रही है तथा बीच-बीच में वन-पशुओं के दौड़ने की आवाजें और उनके शब्द कानों में पड़ रहे थे।

‘मैं महामाया की कृपा से परम पद प्राप्त करके रहूंगा।’ जगतगुरू ने अपने आप से कहा उनके मन में फिर उथल-पुथल मच गई। पास ही स्थित महामाया के दरबार के दर्शनों के प्रति ममता उमड़ पड़ी उनकी आंखे भर आई। मन हुआ कि किसी तरह माँ के करीब जाऊं और उनके चरणों में बैठकर खूब रोऊ………तभी मन के किसी कोने से आवाज आई………..यह माँ के प्रति ममता है। ममता मन की सहज प्रवृत्ति तो है। पर है, मन की कमजोरी, ममता माया है। इससे ऊपर उठे बिना मन को महामाया के चरणों में ध्यानस्थ नहीं किया जा सकेगा और मन माँ के चरणों में लीन न हुआ तो भक्ति की साधना का क्या होगा, फिर कैसे दर्शन होंगे जगद‌म्बिके काली के जिसका उन्होंने संकल्प लिया है।

प्यास व व्याकुलता से विलख रहे शरीर को संयम की डोर से बांधकर एक गहरी सांस लेकर वे पुनः ध्यान योग की ओर चहल कदमी करने लगे। उन्होंने मन में संकल्प फिर दुहराया मैं कटु वचन का दोषी हूं तो क्या हुआ मैं महाकालिका मैय्या के दर्शन प्राप्त करके रहूंगा। इसके लिए जो भी त्याग करना पड़े। मैं करूंगा, व्याकुलता भरी पीड़ा को सहन करूंगा, सब झेलूंगा….. पर दरबार तक पहुंच कर रहूंगा।

देवदार के वनों के बीच में घनी कटीली झाड़ियों में पड़े शंकराचार्य सोच रहे थे यह संसार ही दुखमय है। दुखों से ऊपर उठने के लिए संसार से ऊपर उठना होगा। सुखमग संसार माँ का परम धाम है। जहां माँ की कृपा है वहीं सुख है उनकी कृपा के बिना संसार में प्राणी का कोई अस्तित्व नहीं है।

संसार एक माया जाल है। मैं माया के आवरण को चीर दूंगा जगदम्बामय संसार में स्थित हो जाऊंगा और माँ का ध्यान करते-करते उसमें लीन हो जाऊंगा और जगत जननी जगदम्बा के परम पद को पाकर अपना दिव्य संकल्प पूरा करूंगा।

जगतगुरू शंकराचार्य जी का मन एक बार फिर बैचेन हो उठा उन्हें लगा कि महाकाली से साक्षात्कार किये बिना उन्हें चैन नहीं मिल सकता कालिका के दर्शन किये बिना वे नहीं रह सकते और माँ के दर्शन तभी संभव हैं जब तपस्या कि जाये, उसका अटूट ध्यान किया जाये और इसके लिए आवश्यक है, निर्विघ्न साधना। अन्ततः माँ की वन्दना करके मन ही मन उन्हें लाखों प्रणाम करके धैर्य का दामन थामकर उन्होंने महाकालिका की आराधना व ध्यान आरम्भ किया। घने वीरान जंगलों के बीच उनका मन अब माँ की भक्ति में लीन हो गया उनके रोम-रोम में खप्पर वाली का प्रेम सहज रूप से प्रवेश कर गया भूख प्यास की व्याकुलता व जंगली जानवर तो क्या दुनिया की बड़ी से बड़ी अनिष्टकारी शक्ति भी अब उनका बाल बांका नहीं कर सकती, दिन छिपते ही हाट की वादियों में अंधेरा उतरने लगा और देखते ही देखते रात हो गई। जंगली जानवरों के इधर-उधर दौड़ने की आहट सुनाई पड़ने लगी। वीरान जंगल अंधेरी रात चारों ओर हिंसक पशुओं का साम्राज्य और उसे चीरती जगद्‌गुरू की भक्ति रात के समय ऐसे घने जंगल में होने की कल्पना मात्र से डर के मारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, पर यह डर उन्हें लगता है, जिनका मन यह सोचने के लिए आजाद हो कि वह जंगल में हैं। गुरूदेव का मन तो महाकालिका के ध्यान में लीन था। वे घने वन में थे जरूर पर जंगल की भयंकरता का उन्हें कोई आभास नहीं था। चारों ओर से घिरी दुर्गम पहाड़ियों रामगंगा व सरयू नदी के बीच स्थित इस घाटी पर ध्यानस्थ गुरूदेव के चारों और चन्द्रमा की चांदनी स्थित है। नदी के आसपास के घने जंगल चांदनी की आभा से शोभायमान हो रहे थे। चांदनी में उनका मन महामाया के दिव्य प्रकाश का अनुभव कर पुलकित हो उठा उनके मन में दिव्य आनन्द की हिलोरे जाग उठी। प्राकृक्तिक आभा से प्रसन्न जगतगुरू सोच रहे थे। सबके मन में महामाया का निवास होता है जड़-चेतन सभी में आदि शक्ति की छटा है तभी तो सब कुछ इतना सुन्दर व मोहक है उन्होंने देखा कि जिस देवदार के वृक्ष के नीचे वे ईश्वरीय सत्ता की ध्यान की आभा में खोये है वह वृक्ष आसमान की ऊंचाइयों को छूने की चेष्टा कर रहा है। जंगली जानवरों की आहट सुनकर वे चौकें कासग गाजरों की और उधर देखा तो हिमालयी कस्तूरी मृगों की टोली उनकी ओर टकटकी लगाये देख रही थी पानी पीने को आये मृग रात में घने देवदार के जंगलों के बीच किसी मानव को देखकर शायद हैरान थे।

मृगों को देखकर जगतगुरू शंकराचार्य मुस्करा दिये। मन में आता कि दौड़कर उनके पास पहुंच जायें और जी भरकर उनके साथ खेले कितने प्यारे-प्यारे थे वे वन पशु फिर उन्हें अचानक घाटी के दूसरी ओर से बाघ की दहाड़ सुनाई पड़ी उसके साथ ही मृगों के चौकड़ी भरने की आवाजें, कुछ मृग तो हड़बड़ाहट में उनके ठीक पीछे से गुजरे। बेचारे मृग गुरूदेव सोचन लगें मनुष्य समाज की तरह पशु समाज में भी हिंसा है। दमन और शोषण है। सब महामाया के बनाये जीव हैं। परन्तु अज्ञानवश व भौतिक आवश्यकताओं के लिए एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। विवेकशीलता और ज्ञान को धारण करने की क्षमता पशुओं में नहीं होती है। फिर इनका क्या दोष है। मनुष्य को तो देखो जो बुद्धि वाला प्राणी है। लोक कल्याण के लिए विवेक से काम ले सकता है। पर लेता नही यही सोच उनका मन फिर बेचैन होने लगा

माँ के ध्यान की बजाय बार-बार उनका मन संसार के दुःखी प्राणियों के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा था वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। हे! महाकाली माता। यह मेरी कैसी परीक्षा है, क्या मैं आपका ध्यान कर पाऊंगा इस वियावान जंगल में तेरे दरबार के सम्मुख में अकेला पड़ा हूं सुनसान रात में जंगली जानवरों से घिरा मुझे अपने प्राणों का भी भय नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूं जो पैदा होते हैं, वे अवश्य मरते हैं और मरते भी तब हैं, जब उन्हें मौत आती है। जब शरीर को मौत आ जाती है उसे कोई बचा नहीं सकता और जिसकी मौत नहीं आई उसे कोई मार नहीं सकता फिर मरने का डर कैसा? परन्तु माँ के दर्शन की अभिलाषा ने मुझे मथ डाला है। उनकी याद मेरा मन चीर दे रही है। यह ममत्व की पीड़ा है? कालिका मेरी रक्षा करो मुझे इस पीड़ा से उबारों। मुझे इतना विवेक दो, इतनी शक्ति दो, इतना मनोबल दो मैं इस पीड़ा पर विजय पाऊं और तुम्हारे दर्शन पाऊं कहते-कहते शंकराचार्य व्याकुल हो उठे उसी समय बाघ की दहाड़ सुनकर उन्होंने चेहरा घुमाया वह सीधा उन्हीं की ओर देख रहा था उन्हें लगा कि अब शेर उन्हें खा जायेगा परन्तु अगले ही पल उनका विवेक जागृत हुआ खायेगा तो तभी जब उनकी मृत्यु निकट होगी यदि मृत्यु निकट है तो भय कैसा वे ध्यान मग्न होकर कालिका को याद करने लगे कुछ देर में उन्हें लगा बाघ चलकर उनके पास आकर उन्हें सूंघ रहा है। वे विचलित नहीं हुए और एकनिष्ठ होकर महाकालिका का जाप करते रहे। परन्तु बाघ ने उन पर हमला नहीं किया वह भी समझ गया इस देह में उसके प्रति हिंसा का भाव दूर-दूर तक नहीं है। इसलिए उसने शंकराचार्य पर हमला नहीं किया और दहाड़ता हुए रामगंगा की ओर निकल गया इस असाधारण घटना के बाद उनके मन में महाकालिका के प्रति गहरी धारणा बैठ गयी कि कालिका मैय्या का विधान अपनी जगह अटल है, और मनुष्य जो माँ के विधान की श्रेष्ठतम रचना है, अपने दृढ़ संकल्प से जो चाहे पा सकता है। महाकालिका पर सच्चे मन से विश्वास करने के बाद कभी किसी प्रकार का अमंगल नहीं होता है। उसके पश्चात जगतगुरू का मन आदिशक्ति महाकालिका के धयान में ऐसा लगा कि उन्हें वियावान घनघोर जंगल, रात का सन्नाटा, जंगली जानवर, सांसारिक मायाजाल आदि किसी का कोई स्मरण नहीं रहा रात भर ना जाने कितने हिंसक और अहिंसक वन पशु उनके पास आये और चले गये
शंकराचार्य जी को कुछ भी मालूम नहीं……. …उधर शैल शिखर की चोटी पर बैठे जगतगुरू शंकराचार्य जी के शिष्य गुरूदेव के प्रति काफी चिंतित थे। इधर शिष्यों को गुरूदेव का आदेश था कि जब तक वे महाकाली मंदिर से लौट कर नहीं आ जाते तब तक शिष्य शैल शिखर पर उनकी प्रतिक्षा करेंगे। काफी समय व्यतीत होने के पश्चात् वे अपने गुरू के ध्यान में लीन हो गये।

रात का अवसान हुआ सूर्य भगवान के आगमन से दिशाएं लालिमा फैलाकर ऊषा का संदेश पाकर अलौकिक आभा बिखेरने लगी उसी समय जगतगुरू के कान में वीणा के स्वर गूंजे ध्यान में लीन शंकराचार्य जी को लगा कि उनके कानों में कोई दिव्य नाद गूंज रहा है। उनका पूरा शरीर रोमांचित हो उठा मन आंनदातिरेक से पुलकायमान हो गया। गंगावली की वादियों में महाकालिका मैय्या के ध्यान में खोये शंकराचार्य को लगा कालिका वन में वे अकेले नहीं हैं। वहां के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सब उनके आत्मीय हैं,

और-परिचित हैं, इन सबका भौतिक कलेवर जरूर भिन्न था परन्तु आत्म तत्व उनको अपने जैसा लग रहा था। इस तरह प्राकृतिक गुणों से बंधा उनका मन आखिर उनके अचल संकल्प के आगे झुक जाता और वे ध्यान में लीन हो जाते

एक बार रात के समय जब जगतगुरू शंकराचार्य श्री महाकाली की ध्यान समाधी में लीन थे तब यकायक उन्हें लगा कि ध्यान में विघ्न पहुंचाने का बाहरी प्रयत्न हो रहा है। वे ध्यान को कालिका के स्वरूप में केन्द्रित किये महामंत्र का जाप कर रहे थे जो मंत्र भगवान शिव ने पाताल भुवनेश्वर की गुफा में रामचन्द्र जी के वंशज ऋतुपर्ण जी को दिया। इस महामंत्र के जाप से उनके मन का तार जगत जननी जगदम्बा के दिव्य लोक से मिल गया था। ध्यान योग से प्रकृत्ति की सीमाओं को लांघते हुए जब वे महाकालिका के अति निकट पहुंचने लगे तो प्रकृत्ति एकदम कुद्ध हो उठी। शायद प्रकृति को यह मंजूर नहीं था कि कि प्रकृति की गोद में ध्यानस्त कोई भी उसकी सीमाओं को लांघकर उससे ऊंचा उठ जाये, प्रकृत्ति के देवता विचलित हो गये। इन्द, अग्नि, वरूण, पवन आदि देवता शंकराचार्य के इस घोर तप से परेशान होने लगे। उनके आसन डोलने लगे थे और उन्हें लगा वे अपनी तपस्या के बल से उनसे भी अधिक शांति व शक्ति अर्जित करते जा रहे हैं। यदि उनकी तपस्या इसी तरह चलती रही तो वह प्रकृत्ति के गुणों पर विजय पा लेंगे और फिर शक्ति के बल पर उनके लोकों पर विजय पा लेंगे। शंकाग्रस्त देवगण कुपित हो गये और जगतगुरू की तपस्या में विघ्न डालने का प्रयत्न करने लगे यकायक तूफान का इतना तेज शैलाब आया कि समूची शैल घाटी में तूफान छा गया। तफूान के सांय-सांय स्वर से सम्पूर्ण शैल घाटी गूंज उठी। वन पशु घबराकर इधर-उधर भागने लगे। घोसलों में सोये पक्षी घबराकर चीखते हुए विभिन्न दिशाओं में भटकने लगे। हिमालय की चोटी से उड़ती बर्फिली हवा के तांडव से शैल शिखर के पर्वत से धूल आ-आकर जगतगुरू के ऊपर प्रहार करने लगी उनके नाक, कान और मुंह में धूल भर गई। पर वे ध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुये। समूचा क्षेत्र तूफान से घिरा हुआ था समूची गंगावली की घाटि में त्राहि-त्राहि मची थी। परन्तु इन सबसे बेखबर शंकराचार्य श्री महाकाली के ध्यान में मग्न होकर समाधि लगाये बैठे थे। समस्त इंद्रियां उनके वश में थी। इन्द्रियों की शक्तियां मन में तिरोहित हो गई थी और इन शक्तियों को धारण करने वाला मन ध्यान की डोर से बंधकर योग की पराकाष्ठा पर पहुंचाता जा रहा था।
पवन देव अपनी समूची शक्ति लगाकर हारमान हो गये तो प्रकृति के दूसरे देव वरूण जी आगे आये। उनकी प्रेरणा से आभा मण्डल घनघोर बादलों से घिर गया। काली काली घुमड़ती घटाओं को देखकर ऐसा लगने लगा जैसे प्रलंयकारी मेद्य घुमड़ कर आ रहे हों। वायु की गति रूक गई थी। समूची गंगावली की घाटियां सहम गयी थी। बादलों में कड़ कड़ाकर बिजली चमकती तो गंगाओं के किनारे मोर ‘म्याओ मयाओ’ करके चीख उठते। शैल स्वरों की घाटी के जंगल के पशु डर कर इधर-उधर भाग रहे थे। बेचारे पक्षियों का तो बुरा हाल था। भयंकर अंधड़ के तूफ़ान से पक्षियों के पंख टूट-टूट कर बिखर गये थे, वृक्षों के फल, फूल और पत्ते झड़ गये थे, डालियां टूट गयी थी, कुछ देवदार व अन्य वृक्ष बीच में से फटकर जमीन पर गिर गये थे, कुछ जड़ों समेत उखड़ गये थे। शंकराचार्य जहां ध्यान मग्न थे, उनके आसपास के पेड़ भी जड़ से उखड़कर गिर गये थे। परन्तु श्री महाकाली के ध्यान में लीन शंकराचार्य जी को इसका किसी प्रकार का कोई आभास न था। आकाश मण्डल में बिजली चमकती तो जगतगुरू का धूल से पटा शरीर दिख जाता। प्रकृत्ति के इस कोप से बेखबर गुरूदेव कालिका के ध्यान में अपनी जगह अडिग थे। देखते ही देखते मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी। वृक्षों के पत्तों पर तड़तड़ाती बड़ी-बड़ी बूंदों ने शैल शिखर व दारूगिरी पर्वत को शोर से गुंजायमान कर दिया। गुरूदेव के शरीर पर गिरते रिमझीम बरसात के पानी ने कुछ ही क्षणों में धूल मिट्टी साफ कर दी। शंकराचार्य जी पूरी तरह भीग गये थे। बिजली चमकती तो बरसात में भीगते जगतगुरू का शरीर दिखलाई पड़ जाता। क्षण भर में फिर वही घोर अंधकार। इस प्रकार काफी समय तक घनघोर वर्षा हुई ओले पड़े। शैल पर्वत व दारूगिरी के वन प्रांत का पानी बहकर रामगंगा व सरयू में पहुंचा और दोनों नदियां उफान में आ गयी। शीत लहर की चपेट से सारा क्षेत्र दांत किटकिटा देने वाली भयानक ठंड से कंपायमान हो उठा। परन्तु महाकाली के ध्यान में लीन जगतगुरू शंकराचार्य का मन तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उनका भौतिक शरीर दिव्य रूप से अखण्ड समाधि में उतरता चला गया। इस प्रकार गुरूदेव प्राकृतिक सीमायें लांघ माया का आवरण चीर प्रकृत्ति नियंता महामाया भगवती महाकाली के निकट जा पहुंचे। धारणा और ध्यान की अखण्ड योग माया से वे समस्त रिद्धि-सिद्धि के प्रभावों को पीछे धकलते हुए श्री महाकाली के दिव्य लोक में जा पहुंचे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, प्रकृत्ति के तत्वों से निर्मित शरीर रहते हुए गुरुदेव ने अपनी अखण्ड योग माया से जब प्रकृत्ति के विधान पार कर लिया तोशैल पर्वत की घाटी को स्वर्ग से निहार रहे सभी देवगण चकित रह गये। क्योंकि अब शंकराचार्य की तपस्या में विघ्न डालना या उन्हें रोक पाना किसी भी देवता के वश की बात न रही। घोर साधना तपस्या के बल पर गुरुदेव देवताओं के लोकों को पीछे छोड़ते हुए सीधे महाकालिका के परम धाम में जा पहुंचे थे। उनका मन इन्द्रियों और उनके विषयों को जीतकर जगदम्बा के दिव्य आभा में स्थित हो गया था। इस प्रकार समुची एकाग्रता से श्री महाकालिका मैय्या का ध्यान करते-करते वे योग की उस परम पराकाष्ठा में जा पहुंचे जहां उनकी समष्टि के प्राण से अभिन्नता हो गई। ऐसी स्थिति में पहुंचते ही जगतगुरू शंकराचार्य जी ने जैसे ही श्वास को रोका समस्त जीवधारियों में बैचेनी फैल गयी। सारे देवगण घबरा गये, और कोई उपाय न देखकर भगवती की शरण में जा पहुंचे और करबद्ध प्रणाम कर बोले- हे माता। यह सब क्या हो रहा है। समस्त सृष्टि के प्राणियों का श्वास एक साथ रूक गया। अब पल भर में सृष्टि का नाश हो जायेगा। हे जगदम्बिके आप तो जगतमाता हैं, संकट की इस घड़ी में सृष्टि को उबारों माता हम सब आपकी शरण में हैं।

“घबराओं नहीं” जगतमाता मुस्कराकर बोली………… मेरे सबसे प्रिय भक्त शंकराचार्य ने अपने चित्त को सब ओर से समेटकर मुझ आदिशक्ति में लीन कर दिया है। मेरे दर्शन पाने के लिए सरयू व रामगंगा के मध्यशैल पर्वत की घाटी में वह घोर तप कर रहा है। मैं सृष्टि के मूल में स्थित हूं और शंकराचार्य मुझ में स्थित हैं। इस तरह वह समस्त सृष्टि के मूल में स्थित हो गया है। क्योंकि वह इस समय श्वास रोककर तपस्या की अंतिम सीढ़ी पार कर रहा है। इसलिए समस्त सृष्टि का प्राण रूक गया है। आप घबरायें नहीं। भक्ति से किसी का कोई अमंगल नहीं होता है। आप अपने-अपने लोकों में प्रस्थान करें, मैं शंकराचार्य को दर्शन देकर उसकी अभिलाषा पूर्ण करती हूं। महाकाली जगदम्बा के ऐसे वचन सुनकर भयभीत देवता शान्त हुए उनका भय जाता रहा। शंकराचार्य जी के प्रति उनके मन में जो आंशकाएं उठी थी, उनका भी समाधान हो गया था। जगतमाता ने जब शंकराचार्य जी को अपना सबसे प्रिय भक्त बताया तो देवताओं का सिर श्रद्धा से जगतगुरू के चरणों में नतमस्तक हो गया, और वे सब प्रसन्नतापूर्वक अपने लोकों को चले गये।

@ रमाकान्त पन्त

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