भीमताल ( नैनीताल ), हर बार की तरह इस बार भी भारतवर्ष में 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया तो गया, लेकिन सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया पर । इस प्रकार राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्मान के नाम पर ॐ स्वाहा कह कर राष्ट्रीय गौरव एवं स्वाभिमान का प्रतीक यह महान दिवस देशभर में सम्पन्न हो गया।
यह बात यहाँ हिन्दी दिवस पर आयोजित एक गोष्ठि के दौरान वरिष्ठ पत्रकार मदन जलाल मधुकर ने कही । श्री मधुकर ने कहा कि
देश के स्वाभिमान से जुड़े हिन्दी दिवस को वस्तुत: एक भव्य हिन्दी पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए था, लेकिन जब सरकारी स्तर पर ही उदासीनता हो और खानापूर्ति के साथ कर्तव्य की इतिश्री कर देने की मंशा हो तो फिर कोई भी उम्मीद करना ही बेईमानी हो जाती है। उन्होंने कहा कि हिन्दी दिवस को जब तक हर भारतीय खासकर हिन्दू समाज अपने स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस,होली, दीपावली, गणेश उत्सव आदि महान पर्वों की तरह स्वतः स्फूर्त होकर मनाने को आगे नहीं आता, तब तक यह दिवस सरकारी व विभागीय खानापूर्ति का ही दिवस रहेगा या फिर कुछ शिक्षा संस्थानों और कथित हिन्दी प्रेमियों की बन्द कमरों में गोष्ठि तक ही सीमित रहेगा। श्री मधुकर ने कहा कि हिन्दी दिवस के अवसर पर सरकारे राष्ट्रीय स्तर पर कुछ बड़ी व विशेष योजनाएं लॉन्च करती, हिन्दी साहित्य से जुड़े तमाम प्रादेशिक व राष्ट्रीय पुरुस्कार वितरण समारोहों का भव्य आयोजन कराती, हिन्दी भाषा व साहित्य की समृद्धि के लिए काम करने वालों के लिए कोई प्रोत्साहन परक घोषणाएं करती, ग्राम पंचायत स्तर से लेकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर कुछ प्रतियोगिताओं का आयोजन करती, हर सरकारी कार्य हिन्दी में हो, हर हस्ताक्षर हिन्दी में हो, हर अदालतों में हिन्दी भाषा में कार्य हो, बहस, सुनवाई, निर्णय हिन्दी में हों, विधान सभाओं व संसद का एक दिवसीय विशेष सत्र बुलाकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार, उपयोग आदि को लेकर अनिवार्य नियम बनें, अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों में भी हिन्दी भाषा का सम्मान हो तथा ऐसे ही और भी अन्यान्य सार्थक प्रयास हों, यह सब सुनिश्चित किये बिना हिन्दी दिवस हमेशा की तरह आगे भी महज खानापूर्ति दिवस ही बना रहेगा । उन्होंने कहा कि केन्द्र की मोदी सरकार से हिन्दी भाषी लोगों को बहुत सी उम्मीदें थी, लेकिन लगातार निराशा ही मिलती रही है। श्री मधुकर ने कहा कि मोदी सरकार यदि वास्तव में राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय स्वाभिमान व राष्ट्रीय एकल- अखण्डता की पक्षधर है तो उसे बिना अगर-मगर के हिन्दी भाषा को ही इन सबका माध्यम बनाये जाने की दिशा में गम्भीरता से प्रयास करने चाहिए ।
यहाँ बता दें कि बीते दिवस 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर अवकाश के कारण सरकारी कार्यालयों व विद्यालयों में खानापूर्ति भी नहीं की जा सकी। जहाँ कहीं कुछेक गोष्ठियां आयोजित हुई, उनमें ज्यादातर गोष्ठियों में उपस्थिति दर्ज कराने वालों की संख्या नगण्य ही बतायी जाती है। हिन्दू समाज में हिन्दी भाषा के प्रति इस तरह की उदासीनता सचमुच अपनी जड़ों से कटने जैसा है । उम्मीद करनी चाहिए कि सरकारें हिन्दी भाषा को लेकर गम्भीरता पूर्वक मन्थन करेंगी । यदि आगे भी खानापूर्ति वाली परम्परा चलती रही तो फिर हिन्दी दिवस मनाने का कोई औचित्य व अर्थ नहीं हो सकता ।
रमाकान्त पन्त
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