माता पार्वती के साथ विवाह से पूर्व कुमाऊँ के इस स्थान पर की थी भगवान शिव ने गणेश पूजा

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ताकुला क्षेत्र में स्थित प्राचीन तीर्थ स्थल गणनाथ का मन्दिर तीर्थाटन एवं पर्यटन की दृष्टि से जितना उपयोगी है साधना के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है आध्यात्मिक की महान विराटअद्भुतअलौकिक गाथा को अपने आँचल में समेटे इस देव दरबार तक पहुंचने के लिए भक्त जनों को बेहद झंझावात का सामना करना पड़ता है

मार्ग की हालत इतनी दयानीय है कि उस पर पैदल चलना ही दुश्वार है हालांकि लोग छोटी गाड़ियों द्वारा यहाँ पहुंचते है परन्तु जान हथेली पर रखकर यहाँ की महिमां इतनी निराली है कि पुराणों ने इस भूभाग को परम वंदनीय क्षेत्र कहा है तीर्थाटन के विकास से कोसों दूर गुमनाम से इस क्षेत्र का उद्वार कब होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन
गण पर्वत की महिमा का बखान स्वयं भगवान शिव ने किया है। देवताओं में प्रथम पूज्य श्री गणेश जी की वन्दना के बिना सारी वन्दनायें, पूजा, स्तुति सब व्यर्थ हैं। किसी भी प्रकार की मनोरथ की सिद्धि के लिए इनकी उपासना जरूरी है। इस महान रहस्य का उद्घाटन व्यास जी ने स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 68वें अध्याय में किया है। जागेश्वर नाथ के रूप में अपनी विराट लीला को प्रकट करने वाले जागेश्वर नाथ ने श्री गणेश पूजा के महात्म्य को अनेक ऋषिगणों ने महर्षि व्यास जी से जानने की इच्छा प्रकट करते हुए पूछा, हे! महर्षि ब्रह्मदेव सहित समस्त देवों से सेवित जागेश्वर को छोड़ भगवान शंकर ने गण पर्वत पर गणेश जी का पूजन किस प्रयोजन से किया और विवाह संस्कार के लिए भी भगवान शिवजी जागेश्वर को छोड़कर अन्यत्र किसलिए गये। भगवान शिव के इस महान रहस्य को बतलाकर हमें धन्य करें। ऋषियों द्वारा पूछे जाने पर परम ज्ञानी ऋषि वेद ब्यास जी ने कहना आरंभ किया कि सती के दूसरा जन्म लेने पर अनेक देवताओं व महानुभावों के कहने पर भी शिवजी द्वारा दूसरा विवाह करने के लिए राजी नहीं हुए। समय के उसी चरण में तारकासुर का घोर आतंक छाया हुआ था।

सभी चिंतित देवगण ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा जी व इन्द्रादि देवता कामदेव के साथ ध्यानस्थ शिव का ध्यान तोड़ने उनके समीप पहुंचे। कामदेव ने उन्हें ध्यान से जगाया। ध्यान भंग होने के कोपभाजन में कामदेव को शिव लीला की चपेट में आकर भस्म होना पड़ा। देवी रति की प्रार्थना पर भगवान शिव ने उसे वरदान देते हुए कहा कि कामदेव द्वापर युग में योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के पुत्र प्रदुम्न के रूप में जन्म लेकर अनेक राक्षसों सहित समरासुर का वध करेंगे, तभी तुम्हारा मिलन होगा। आगे देवताओं ने अपनी विनती शिवजी के सम्मुख रखते हुए कहा, हम सभी देवगण तारकासुर से त्रस्त हैं। हमें उसके आतंक से मुक्ति दिलाएं। देवताओं की विनती पर उन्होंने देवी गिरिजा के साथ विवाह करने की हामी भर दी ताकि उनसे उत्पन्न पुत्र तारकासुर का वध कर सुख शांति करा देगा। तत्पश्चात शिवजी तथास्तु कहकर हिमाचल के घर को चल दिये। रास्ते में उनके प्रमुण गण स्कन्द ने भगवान शिव से विघ्ननाशार्थ गण पर्वत पर गणेश जी का पूजन करने को कहा। शिवजी को यह बात बहुत भायी। ऋषियों ने आगे पूछा तपोधन गणाध्यक्ष एवं उनके पूजन की महिमा भी बतायें।

इस महिमा का बखान करते हुए ब्यास जी ने ऋषियों को बतलाते हुए कहा, इस लोक में मानवों के समक्ष अनेक विघ्न-बाधायें आती हैं जिस कारण मनुष्य के कार्य बिगड़ते रहते हैं। इन विघ्नों को दूर करने के लिए विश्वकर्मा ने गणेश जी की प्रतिमा पर्वत के अग्रभाग में गढ़ी है। महादेव जी ने उस पर्वत को प्रणाम कर निर्विघ्न हेतु श्री गणेश जी का पूजन किया। जो लोग इस पवित्र प्रतिमा का पूजन करते हैं उनके सब विघ्न दूर हो जाते हैं। तत्पश्चात ही आगे शिवजी की पूजा का विधान है। इनकी पूजा के बिना शंकर भगवान की पूजा अर्चना व्यर्थ है। पूजा कर्मों में भी श्री गणेश जी का पूजन सर्वप्रथम होता है। गन्ध, पुष्प, अक्षत, दूर्वा और धूप आदि से गणेश जी का पूजन कर मानव समस्त दुःखों से मुक्त रहता है। यहीं गणिकेश के रूप में शिवजी का भी पूजन किया जाता है।

यहां गिरिजा देवी का पूजन करने से मनुष्य को सत्यलोक की प्राप्ति होती है। कुमाऊं की धरती में गणनाथ का मंदिर जनपद अल्मोड़ा के ताकुला क्षेत्र में पड़ता है। इस देव दरबार को सनातन काल से लोग पूजते आये हैं।

अनेक भक्तों के हृदय में यह शंका रहती है कि श्री गणेश जी का जन्म तो बाद में हुआ है लेकिन पूजा पहले कैसे हुई लेकिन आदि गणेश की महिमां पुराणों में वर्णित है जिस विषय पर बाद में विस्तार के साथ प्रकाश डाला जाएगा बारहाल रामायण की इस चौपाई में भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने शिव पार्वती के विवाह से पूर्व गणेश जी की पूजा का सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेड संभु भवानि कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियें जानि ॥ १०० ॥

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥ गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपी जानि भवानी ॥ १ ॥ पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥ बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं ॥ २ ॥ बाजहिं बाजन बिबिध विधाना। सुमनबृष्टि नभ मै बिधि नाना ॥ हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥ ३ ॥ दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥ अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥ ४

 

 

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