हल्दूचौड़/
आदि काल से ही भारत भूमि गौ-गंगा- गायत्री एवं गीता के साथ ही महान सन्तों की कर्म भूमि रही है। इन सभी का समन्वित स्वरूप ही इसकी संस्कृति, सभ्यता, मर्यादा, परम्परा एवं पहचान है। भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से ही ये सभी इस धरा-धाम में अवतरित हुए तथा लोक-मंगल के महान कार्य का मूल आधार बने। गऊ यहां की आदि संस्कृति है, गंगा प्राणदायिनी है, गायत्री रक्षक है। गीता कर्तव्य एवं कर्मयोग का संदेश देती है। सन्त उक्त सभी के आदेशों का पालन कर त्याग, भक्ति, सेवा, समर्पण जैसे महान मूल्यों को पोषित व पुष्पित करते हैं ,तथा मर्यादा की रक्षा एवं लोकमंगल हेतु सदैव प्रयासरत रहते हैं। वास्तव में सन्त संसार की एक अनमोल निधि हैं। वे अपने लिए नहीं बल्कि संसार के लिए जीते हैं उनका यही त्याग तो उन्हें सन्त पद पर प्रतिष्ठित करता है। उनके कार्य मनुष्य ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी होते हैं।
उनकी सदाशयता, स्नेह एवं स्वभाव देखकर देवता और स्वयं भगवान भी उनके दर्शन सुख का लाभ लेने को उत्सुक रहते हैं। आदिकाल से लेकर वर्तमान युग यानी कलयुग में भी भारत भूमि में सन्तों के पदार्पण की दिव्य परम्परा अविरल चल रही है। यद्यपि कलयुग के प्रभाव से बहुत से असन्त भी सन्तों के समुदाय में प्रवेश करने लगे हैं। लेकिन सन्त तो सन्त है। उसकी दिव्य वाणी सरल एवं समदर्शी स्वभाव तथा मागंलिक कार्य उसे असंतों से ठीक उसी तरह अलग और ऊपर रखते हैं जिस तरह कमल की नाल, पत्ते इत्यादि कमल पुष्प को कीचड़ से ऊपर तथा अलग रखते हैं कीचड़ और कमल की पहचान तो किसी के लिए भी कठिन नहीं है। इन सभी का समन्वित स्वरूप ही इसकी तथा इनकी शिक्षा को जीवन में उतार कर अपने मनुष्य होने संस्कृति, सभ्यता, मर्यादा, परम्परा एवं पहचान है। स्वामी रामेश्वरदास
वर्तमान में ऐसे सन्त है जो न केवल ईश्वर की सद्इच्छा को आत्मसात कर तदनुरूप इस दुर्लभ जीवन को सार्थक करने की दिशा में निरन्तर अग्रसर है।बल्कि एक सच्चे कृष्ण भक्त एवं महान कर्मयोगी के रूप में वे जनमानस में प्रसिद्व है। गऊमाता के आशीर्वाद को सिरोधार्य मानकर वे सदैव गौ सेवा में सलग्न रहते है। उनका सरल हृदय, हंसमुख स्वभाव, मुखमण्डल तेज एवं कर्मयोगी दिनचर्या में सम्पूर्ण आश्रम परिसर की छटा निखरी रहती है।आश्रम आने वाले दर्शनार्थी को सदैव संतोष व सुख की अनुभूति होती है।सचमुच यह एक दिव्य किन्तु दुर्लभ अनुभव होता है। भक्तिमय वातावरण के मध्य यहा श्रद्धा से सेवित सरक्षित गोवंश का स्नेह छाया रहता है। भगवान श्रीकृष्ण के सानिध्य की अनूभूति यहां पर बरबस महसूस होती है। अराध्य की भक्ति गऊ सेवा, निराश्रितों को आश्रय देना तथा मंदिर में आने वाले भक्तों के साथ हरि चर्चा करना बस यही यहां के भक्तों की पहचान है।25 दिसम्बर 1999 का दिन देवभूमि उत्तराखण्ड के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन के इतिहास में एक अद्भुत तथा अत्यधिक शुभ दिन था जब स्वामी रामेश्वरदास जी महाराज ने अपनी दिव्य कल्पना को साकार करने की दिशा में प्रथम चरण का परमा गौशाला के रुप में विधिवत शुभारंभ किया । इसके अन्तर्गत अपनी पैतृक कृषि भूमि एवं भवन आदि चल अचल संपत्ति भगवान श्री कृष्ण के चरणों में अर्पित कर दी और अपने गुरुदेव श्री नव योगेन्द्र स्वामी जी महाराज श्री नित्यानंद प्रभु महाराज के नाम से एक मंदिर आश्रम का शिलान्यास किया यह शुभ कार्य उन्होंने अपने गुरुदेव के ही कर कमलों से संपन्न कराया गुरुदेव के आशीर्वाद से नित्यानंद पाद आश्रम श्री श्री गौर राधा कृष्ण मंदिर परमा का एक छोटा किंतु भव्य आध्यात्मिक स्वरूप आज विराट स्वरूप ले चुका है।
शुरुवाती चरण में रामेश्वर दास जी महाराज के मार्गदर्शन में यहां पर मंदिर आश्रम की एक निश्चित दिनचर्या के अतिरिक्त अनेक क्रियाकलाप संपन्न होने लगे। जिनमें हरि नाम संकीर्तन गो सेवा, गरीब बच्चों, को आश्रय के साथ उनकी उचित शिक्षा दीक्षा लाचार बेसहारा वृद्ध महिलाओं को संरक्षण देने और आश्रम के विस्तार जैसे कार्यक्रम प्रमुख रूप से शामिल थे।जो आज उन्हीं के संरक्षण में बृहद रूप में चल रहे हैै। यद्यपि प्रारंभिक चरण स्वामी जी के लिए अत्यधिक चुनौती भरा तथा संघर्षपूर्ण रहा परंतु दृढ़ निश्चय एवं पावन संकल्प के साथ ही कृष्ण की कृपा एवं गौ माता के आशीर्वाद से सभी प्रतिकूल परिस्थितियां धीरे-धीरे अनुकूल होती चली गई और सभी कार्य मनो इच्छा के अनुरूप होने लगे इस तरह आज लगभग दो दशक की यात्रा में मंदिर आश्रम का भव्य स्वरूप उभरकर आया है यह सब महाराज जी के अथक परिश्रम एवं कुशल प्रबंधन का ही प्रतिफल है
स्वामी रामेश्वर दास अत्यधिक शांत स्वभाव के है। अपनी लगन व परिश्रम से उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया है कि वह एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी महान कर्मयोगी हैं मंदिर में आने जाने वाले भक्तों के साथ हरि चर्चा करना,गौ सेवा करना बस यही उनका धर्म है। गायों के बीच बैठना उनकी सेवा करना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा है उनका यह स्पष्ट मत है कि सोचने विचारने तथा मुंह से बोलने मात्र से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है हां समय अवश्य नष्ट होता है इसलिए जो भी उत्तम विचार मन में आए उस पर अमल करना शुरू कर दो तथा कर्म के द्वारा व्यावहारिक तुला पर उसे सिद्ध करने का यत्न करो इसी से सबका कल्याण होगा व्यक्ति का, समुदाय का, समाज का और राष्ट्र का क्योंकि उत्तम विचार यदि सही दिशा में आगे बढ़ता है तो सब मंगल ही मंगल होता है उत्तराखंड की भूमि में यह आश्रम अपने आप में अद्भुत है महाराज जी के दिशा निर्देशन में कृष्ण भक्तों तथा गौ भक्त के सहयोग से तथा आश्रम की सेवा में तत्पर पूर्णकालिक सेवकों के परिश्रम से यह उत्तरोत्तर नया आकार विस्तार पा रहा है।
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