दृष्टिकोण : सांस्कृतिक मेलों के अस्तित्व पर संकट

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भारत बहुसंस्कृति वाला देश है। पर्वों की अद्भुत श्रृंखला में भारत के कोने कोने में विशेष पर्व और मेले आयोजित होते रहते हैं। मेलों का एक निश्चित समय होता है तथा मेले किसी विशिष्ट परम्परा का निर्वहन करते हैं । यही कारण है कि कुछ मेले आदिकाल से अपनी विशिष्ट पहचान के लिए प्रसिद्ध हैं, किंतु जब से बाज़ारवादी व्यवस्था ने समाज में प्रवेश किया है तथा घर बैठे उपयोगी सामग्री मंगाने का चलन प्रारम्भ हो गया है। इन मेलों पर अपने अस्तित्व को बचाने का संकट मंडराने लगा है ।
एक समय था कि जब देश के कुछ परिवारों के लिए मेले ही आजीविका का प्रमुख साधन थे। व्यापारी मेलों के माध्यम से ही वर्ष भर अपनी आजीविका चलाते थे । उत्तर भारत में अलीगढ़ से चलने वाली मेला श्रृंखला बुलन्दशहर होते हुए मेरठ के मेला नौचंदी तक का सफ़र तय करती थी, तदुपरांत मुज़फ़्फ़र नगर की नुमाइश से आगे बढ़ा करती थी। अब कुछ भी समयानुसर नहीं चल रहा । मेलों के माध्यम से अपना भरण पोषण करने वाले झूला संचालकों, सर्कस संचालकों, व्यवसाइयों के सम्मुख रोटी का संकट उत्पन्न हो गया है। उत्तर भारत के प्रख्यात मेले नौचंदी का ही उदाहरण लें, तो स्पष्ट होगा कि देश भर के अनेक मेलों की तरह यह भी अपना ऐतिहासिक स्वरूप बचाए रखने हेतु जूझ रहा है। कारण स्पष्ट है कि जिन मेलों का आयोजन विशिष्ट समय पर किया जाना अपेक्षित होता है। वे मेले प्रशासनिक उदासीनता के चलते अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को नकारकर सरकारी औपचारिकता और धन की बंदरबाँट तक ही सीमित रह गए हैं। एक समय था कि जब मेला नौचंदी उत्तर भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल होता था। मेले का आनंद लेने के लिए मेरठ में दूरदराज़ से नाते रिश्तेदार इकट्ठा हुआ करते थे।

मेले में अपने सामान की बिक्री करने के लिए देश विदेश से व्यापारी आया करते थे। बरेली का फ़र्नीचर, कन्नौज की इत्र, भागलपुर की चादरें, कुछ अन्य विशिष्ट सामग्री जो केवल मेले में ही उपलब्ध हुआ करती थी। सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों में विश्व विख्यात विद्वान भागीदारी किया करते थे । कवि सम्मेलन, मुशायरा, क़व्वाली , सिने स्टार नाइट मेले को यादगार बनाने में बड़ी भूमिका निभाते थे। तम्बू में थिएटर, एक से अधिक सर्कस, नौटंकी मनोरंजन के सशक्त माध्यम हुआ करते थे । मेला होली पर्व के उपरांत एक रविवार को छोड़कर दूसरे रविवार से आयोजित किया जाना अनिवार्य होता था। यह वह समय होता था कि जब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ नववर्ष में चण्डी माता का व्रत धारण करने वाले श्रद्धालु माँ चण्डी के मंदिर के प्रसाद चढ़ाने आते थे तथा मंदिर के ठीक सामने बाले मियाँ की मज़ार पर रात भर क़व्वालियों की महफ़िल जमा करती थी। अब मेला ढाई तीन माह के विलम्ब से प्रारम्भ होता है। ऐसे में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की औपचारिकता मात्र निभाई जाती है। बिना दर्शकों के मेला पंडाल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। हर कोई जानता है कि जैसे जैसे आम आदमी जागरूक हो रहा है। वैसे वैसे मेलों के माध्यम से सरकारी धन की बंदरबाँट के लिए प्रभावशाली लोग नए नए मार्ग खोज रहे हैं। सत्ता से जुड़े लोग मेलों के आयोजन में अधिक सक्रिय भूमिका निभाते हैं तथा मेला आयोजन के लिए बनाए गए बजट का दुरुपयोग करने में पीछे नहीं रहते।

विडम्बना यह भी है कि मेलों के परम्परागत स्वरूप से खिलवाड़ करके अनेक मेलों का समय प्रशासनिक सुविधाओं से बदलने का चलन बढ़ गया है, जिसे किसी भी स्थिति में उचित नही ठहराया जा सकता। यदि ऐसा ही चलता रहा तो मेलों के विशिष्ट उद्देश्य को दरकिनार करने की स्थिति में मेलों की प्रासंगिकता ही क्या रह जाएगी ?

(डॉ. सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स)

 

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