पिछले दिनों एक साँस्कृतिक कार्यक्रम में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। प्राथमिक पाठशाला के बच्चों का कार्यक्रम था। आयोजन में कुल मिलाकर नौ समूह गान थे। तितलियों और फूलों की वेश-भूषा व अन्य परिधानों में सजे-धजे बालक-बालिकाएँ बहुत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे। कार्यक्रम का ‘श्री गणेश’ ड्रम और आरकेस्ट्रा से हुआ। कनफाडू शोर के साथ ही उन प्यारे-प्यारे बच्चों ने डिस्को अन्दाज़ में आरकेस्ट्रा की धुन पर जो फूहड़ ढंग से कूल्हे मटकाने आरम्भ किए तो अन्त तक वही सिलसिला जारी रहा। मन विचित्र खिन्नता से भर गया। जबकि अध्यापक वर्ग एवं बच्चों के अभिभावक स्वयं को अत्याधिक गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे।
ऐसा प्रदर्शन किसी एक शिक्षण संस्थान में होता हो ऐसा भी नहीं है, आज तो समूचे भारत में प्रत्येक शिक्षण संस्थान की लगभग यही दशा है। हर ओर पश्चिमी जीवन शैली, वेशभूषा, आचार-विचार और मनोरंजन एक शैतानी साये सा फैला हुआ है। क्या अभिभावक और क्या अध्यापक वर्ग सब ही तो अपने-अपने तरीके से धन कमाने और सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने की होड़ में लगे हैं। सब को एक ही चिन्ता सालती रहती है कि किस प्रकार अधिक से अधिक धन कमा कर अपने पड़ौसी अथवा निकटतम प्रतिद्विन्द्वी से आगे निकला जाए। ऐसे में देश की भावी पीढ़ी के भविष्य की चिन्ता किस को होगी? पारिवारिक इकाइयाँ टूट रही हैं, दादी-नानी वृद्धगृहों में बनवास भुगतने को विवश हैं। क्रचों और व्यवसायी दाइयों के हाथों में पलते अबोध न तो अच्छे संस्कार ही प्राप्त कर सकते हैं न ही मानव-कल्याण के स्वाभाविक सूत्रों को पकड़ पाते हैं। बस पश्चिम का अन्धानुकरण मात्र ही हमारा लक्ष्य प्रमाणित हो रहा है। कान्वेंटों और पब्लिक स्कूलों में शिक्षित पीढ़ी इसके अतिरिक्त और भला कर ही क्या सकती है? सच पूछिए तो, बालक तो कच्ची मिट्टी के समान होता है। गीली मिट्टी को जो आकार दिया जायेगा वैसी ही आकृति प्रस्तुत हो जाएगी, उसी प्रकार बच्चों को जो सिखाया जायेगा वही सीखेंगे यह स्वयं में निर्विवाद सत्य है। अब तनिक एक नज़र शुद्ध आंग्ल शिक्षण संस्थानों पर भी डालते चलें तो तस्वीर और भी स्पष्ट हो जायेगी।
समय हुआ, भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘‘ओजस्विनी’’ में एक सचित्र समाचार प्रकाशित हुआ था, जिसमें एक मिशनरी स्कूल के नौ बच्चों ने पादरी द्वारा बेरहमी से पिटाई किये जाने के प्रमाण अपने शरीर पर दिखाए। बच्चों ने शिकायत की कि उन्हें ईसाई बनने के लिए कहा जाता है कहना न मानने के प्रतिफल में उनकी पिटाई की जाती है अतः इस शोषण से उन्हें बचाया जाए। ऐसी ही अन्य शिकायतों में से एक है, हिन्दी बोलने वाले मिशनरी स्कूलों के बच्चों के साथ भी इसी प्रकार का व्यवहार। प्रश्न उठता है कि मिशनरी स्कूलों में अपने बच्चे भेजने की आखि़र विवशता ही क्या है? दरअसल पश्चिमी जीवन शैली आज भारतीय जनमानस पर कैंसर रोग की तरह अपनी पकड़ मज़बूत कर चुकी है अतः उच्च वर्ग में तो कान्वेंट में बच्चे भेजना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है जिसे ये वर्ग स्टेटस सिम्बल कह कर पुकारता है। मध्य वर्ग भी कुछ तो विवशतावश और कुछ परिवार केवल होड़ में अपने बच्चों को मिशनरी स्कूलों में पढ़ाना अपनी शान समझने लगे हैं।
हर प्रदेश में हजारों की संख्या में सरकारी शिक्षण संस्थान कार्यरत हैं। सरकार का करोड़ों नहीं अरबों रुपया इन संस्थानों में कार्यरत कर्मचारी एवं शिक्षक वर्ग के मानदेय, भवनों और अन्य रख-रखाव पर हर साल ख़र्च होता है, इसके बाद भी आम जनता इन संस्थानों से सन्तुष्ट नहीं है। शिक्षक वर्ग द्वारा ट्यूशन न लिये जाने का परिणाम यह निकलता है कि जो बच्चे ट्यूशन नहीं लेते वे जान-बूझ कर फे़ल कर दिये जाते हैं। स्कूल में अध्यापक कुछ भी श्रम नहीं करके ट्यूशन लेने वाले बच्चों को ही पढ़ाते हैं। पाठशाला के नियत समय में भी घर पर ट्यूशन ली जाने की घटनाएं आम हो गई हैं। शिकायत? किसकी? किससे? निरीक्षकों की जेबें भर दिए जाने पर कोई क्या कर लेगा? अतः मध्यम वर्ग न चाहते हुए भी बच्चों को मिशनरी अथवा पब्लिक स्कूलों में भेजने के लिए विवश है। इस पर भी शिक्षक वर्ग की नियुक्तियों के लिए आए दिन हड़तालें और जलसे-जुलूस आयोजित किए जाते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में इने-गिने बालक उपस्थित रहते हैं। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए प्रश्न उठता है कि आखिर कैसे निपटें इस समस्या से?
मिशनरियों के बढ़ते दबाव के कारण भारतीय सभ्यता और संस्कृति को भयानक ख़तरों से जूझना पड़ रहा है, हालाँकि लम्बी विदेशी दासता ने भारतीय मूल सभ्यता और संस्कृति को अत्याधिक हानि पहुँचाई है फिर भी वह इसे समूल नष्ट करने में अक्षम ही रही है, ऐसा इसलिए हुआ कि भारतीय सनातन धर्म के मूल सिद्धांत यथा सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, शुचि, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इत्यादि प्राणी मात्र के हित में रचे गये हैं। पूर्वकाल में प्रचलित गुरुकुल पद्धति से इन्हीं मानवीय गुणों के संवर्धन और संरक्षण की शिक्षा विद्यार्थी को दी जाती थी। प्राचीन शिक्षा पद्धति में मानव के चरित्र निर्माण पर बल दिया जाता था जिससे युवा पीढ़ी सभ्य और सुसंस्कृत होती थी।
इन शिक्षा पद्धतियों का लाभ प्रत्यक्ष दिखाई देता था व्यक्ति में वरिष्ठ जनों के प्रति, देश और समाज के प्रति अपने दायित्व को पहचानने की स्वतः-स्फूर्त प्रेरणा जाग्रत होती थी। जिसका आज के समाज में नितान्त अभाव दृष्टिगोचर होता है। इतने अधिक विदेशी आक्रमण होने के पश्चात् भी यदि मूल भारतीय संस्कृति शेष बची है तो इसका श्रेय इन्हीं गुरुकुलों को जाता है। भारतीय संस्कृति ने जिस उदारता से विदेशियों को भी आत्मसात किया है वह विश्व के लिए एक उदाहरण है। हमें गर्व है कि भारतीय मनीषियों ने ही कत्थक और भरतनाटयम् जैसे सम्य और सुसंस्कृत नृत्यों को जन्म दिया है। वर्तमान में आँग्ल भाषा और शिक्षा के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि विज्ञान और विधि आदि विषयों के लिए आँग्ल शिक्षा परम आवश्यक है किन्तु उन पोंगा-पंथियों से यह पूछा जाए कि बिना आँग्ल भाषा ज्ञान के पुष्पक जैसे विमान और रामेश्वर जैसे पुल किसने निर्मित किये थे? महाभारत के अस्त्र-शस्त्र, मयदानव की वास्तुकला भी इन्हीं गुरुकुलों से प्राप्त शिक्षा की देन थी। आज समूचा विश्व वेदों की ऋचाओं में विज्ञान और चिकित्सा को तलाश रहा है, जो पाश्चात्य मिशनरियों के बिना ही योग्य विद्यार्थी गुरुकुलों से सीख कर आते थे।
वर्तमान समय में दूरदर्शनीय संस्कृति ने अत्यधिक नग्नता और अश्लीलता का वातावरण प्रस्तुत कर दिया है।, इन्टरनेट के युग में यह तो सम्भव नहीं कि टी.वी. देखे ही न जाएँ, किन्तु क्या देखा जाए और क्या नहीं देखना है की समझ बच्चों में अवश्य उत्पन्न करनी है। उन्हें अनुशासन सिखाना है। यह कार्य किसी सीमा तक विद्याभारती की पाठशालाएँ कर भी रही है किन्तु हमें इतने मात्र से सन्तुष्ट होकर बैठ नहीं जाना है। कुछ इससे अधिक करने के प्रयास सदैव जारी रखने की आवश्यकता है।
गहन दृष्टि से देखा जाए तो प्राचीन गुरुकुलों की शिक्षा पद्धतियों की उपादेयता ही ऐसे में एक समाधान प्रतीत होता है। इसकी सिफ़ारिश करते हुए यह भी परामर्श देना अति आवश्यक है कि उन पद्धतियों में भी कुछ परिवर्तन आवश्यक है, जो समय की माँग है। कोई भी नियम-कनून बनाते समय यदि देश और काल को दृष्टि विगत न किया जाए तभी कोई नियम सार्थक भूमिका का निर्वहन कर सकता है।
हमारे देश में इतने मत-मतान्तर प्रचलित है कि एक साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति चकरा कर रह जाता है कि किसे छोड़े और किसे माने। शैव मतावलम्बी शिव को सर्वोपरि मानते हैं तो वैष्णव विष्णु को, शाक्त शक्ति (दुर्गा) को तो कोई कृष्ण और कोई राम को ही सब कुछ सिद्ध करते हैं। बौद्ध और जैन पूजा पद्धतियाँ सनातन धर्म से जुड़कर भी अपना अलग असितत्व रखती हैं। ऐसे में एक मत ईसाई और दूसरा इस्लामिक भी हो तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन कोई गम्भीर अपराध नहीं किन्तु किसी पर जोर जबरदस्ती कुछ भी लादना ही गम्भीर अपराध है। इस्लामिक और ईसाई मत येन-केन-प्रकारेण दूसरे देश की संस्कृति को समूल नष्ट करने के लिए कटिबद्ध हैं। भारतीय इतिहास इस्लामिक शासन काल में हुई तोड़-फोड़ और विनाश का साक्षी है। इस्लामिक शासकों की इसी कट्टरता के कारण उन्हें भारतीय जन-मानस का विद्रोह झेलना पड़ा। किन्तु मिशनरी शिक्षा पद्धति का खतरा इससे भी कहीं अधिक गम्भीर है।
मिशनरी शिक्षा पद्धति हमारी नई पीढ़ी की कच्ची मिट्टी को बेंढंगे और फूहड़ बर्तनों का आकार देने में जी-जान से जुटी हुई है, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है उच्छृंखल और नशे की लत में दिन-प्रति-दिन ढूबती युवा पीढ़ी। गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति धर्म के द्वारा अर्थोपाजन करने की थी। कर्म के लिए गृहस्थ भी आश्रम रूप होते थे और अन्त में मोक्ष प्राप्ति भी भारतीय गुरुकुलों की ही देन रही है। पाश्चात्य शिक्षा न तो धर्म को जानती है और न ही मोक्ष को उन्हें तो बस अर्थ और काम, केवल दो ही पुरुषार्थों का पता है। भारतीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति में चारों पुरुषार्थ महत्वपूर्ण समझे जाते रहे, अतः हमें घर लौट चलना चाहिए। किन्तु यह अवश्य ध्यान में रखना होगा कि मार्ग उतना विकट भी न हो कि पथिक घबरा कर फिर उसी दलदल में जा धंसे।/ आशा शैली वरिष्ठ सम्पादक



लेटैस्ट न्यूज़ अपडेट पाने हेतु -
👉 वॉट्स्ऐप पर हमारे समाचार ग्रुप से जुड़ें