वर्षा ऋतु, भाद्रपद माह, आकाश में गरजते बरसते मेघ, हरियाली एवं हरीतिमा से सुसज्जित धरती उस पर फूलों की मोहक सुगंध से सराबोर प्रकृति संपूर्ण मानव मन में नये उत्साह का संचार करती है। इसी समय आती है हरतालिका तीज। भादों मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने यह एक विशिष्ट पर्व है। अविवाहित युवतियां अपने मनोनुकूल पति को प्राप्त करने के लिए एवं सुहागिन महिलाएं अपने सुहाग अक्षुण्ण रखने के लिए यह व्रत रखती हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार षोडश मातृकाओं में सर्वोच्च पद गौरी को प्राप्त है। गौरी को पार्वती भी कहा जाता है। हर तालिका तीज के दिन देवी पार्वती के गौरी स्वरूप की ही पूजा अर्चना की जाती है।
बहुप्रचारित मान्यता है कि सती रूप में देहत्याग करने के बाद पार्वती जी ने गिरिराज हिमाचल के घर जन्म लिया, तभी नारद ऋषि ने हिमाचल को बताया कि उनकी पुत्री अद्वितीय होगी। पार्वती जी दिन-रात शिव आराधना में लगी रहती थीं, उनकी तपस्या को देखकर राजा हिमाचल चिंतित हो उठे और उन्होंने अपनी पुत्री के लिए सुयोग्य वर तलाशना आरंभ कर दिया। तभी एक दिन पुनः नारद जी का आगमन राजा हिमाचल के महल में हुआ। उन्होंने राजा हिमाचल से भगवान विष्णु के लिए उनकी कन्या पार्वती को मांगा। राजा हिमाचल भी अपनी पुत्री का भगवान विष्णु से विवाह करने के लिए सहर्ष सहमत हो गये, लेकिन जब यह बात पार्वती को ज्ञात हुई तो वे दुखी हो गयीं पार्वती को दुखी देखकर उनकी दो सहेलियां जया और विजया उन्हें राजमहल से दूर एक गुफा में ले गयीं जहां पार्वती जी ने भगवान शिव की बालू की प्रतिमा बनाकर अपनी तपस्या आरंभ कर दी। भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती जी ने कठोर तपस्या की। भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की हस्ति नक्षत्र युक्त तृतीया को पार्वतीजी ने निर्जल एवं निराहार रहकर भगवान शिव का पूजन एवं रात्रि जागरण किया। देवी पार्वती की इस कठोर तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गये और वे देवी पार्वती के सम्मुख प्रगट होकर बोले- देवी! मैं बहुत प्रसन्न हूँ बोलो क्या चाहती हो? तब देवी पार्वती ने कहा हे देव! यदि आप सचमुच मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे पत्नी रूप में अंगीकार कीजिए। भगवान शंकर तथास्तु कहकर पुनः कैलाश पर्वत पर चले गये। बाद में राजा हिमाचल ने अपनी पुत्री का विवाह भगवान शंकर के साथ कर दिया।
भगवान शंकर को पति रुप में पाने के लिए माता पार्वती की तपस्या भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र में सफल हुई थी। इसीलिए इस दिन को विशेष महत्वपूर्ण मानकर अविवाहित युवतियां इस दिन भगवान शंकर की पूजा अर्चना तथा विवाहित स्त्रियां शिव-पार्वती के युगल स्वरूप की पूजा करती हैं।
हरतालिका तीज के दिन स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही अपना व्रत आरंभ कर देती हैं। सारे दिन निर्जल, निराहार रहकर संध्या समय गोधूलि बेला में शिव-पार्वती की बालू या मिट्टी की मूर्ति स्थापित की जाती हैं। पार्वती को लाल जरी गोटे वाले वस्त्र एवं भगवान शंकर को पीले उत्तरीय पहनाए जाते हैं। व्रत करने वाली स्त्रियां स्वयं सोलह श्रृंगार करने पूजन करती है। पूजन में विविध प्रकार के फल-फूलों के साथ बेल, धतूरा, तुलसीपत्र एवं आक के फूल एवं पत्तों का विशेष महत्व होता है। इसके अलावा महिलाएं सुहाग के रूप में चूड़ी, बिछिया, कंगन,,कांच,कंघी,सिंदूर, रोली एवं बिंदियां भी देवी पार्वती को अर्पित करती हैं। सारी रात भजन कीर्तन के साथ-साथ शिव-पार्वती की पूजा भी जारी रहती है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व शिव-पार्वती की मूर्ति नदी,तालाब या
कुएं में विसर्जित कर दी जाती है।
पूजा में भगवान शंकर एवं पार्वती को समर्पित वस्तुएं दक्षिणा के साथ किसी ब्राह्मण को दान कर दी जाती हैं। सूर्योदय के पश्चात व्रत का पारण किया जाता है।
इस व्रत को करने के पूर्व देवी पार्वती का उनकी सखियों द्वारा हरण कर लिया गया था,इसलिए इसे हरतालिका व्रत कहा जाता है। भारतीय नारियां अपने विश्वास, संकल्प एवं आस्था के प्रति कितनी दृढ़ प्रतिज्ञ हैं इसका उदाहरण है गणगौर,वट सावित्री अमावस्या, करवाचौथ और हरतालिका तीज जैसे व्रत,जिन्हें ये अपने तन एवं मन से पूर्ण समर्पित होकर करती हैं और यही हमारी इस सनातन संस्कृति की विशिष्टता है।
(अंजनी सक्सेना-विभूति फीचर्स)











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