पुण्यतिथि : 30 जनवरी
*राष्ट्रवादी कवि माखनलाल चतुर्वेदी के निबंध*
(डॉ. परमलाल गुप्त- विभूति फीचर्स)
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म सन् 1888 ई. में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई नामक ग्राम में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। मिडिल और नार्मल परीक्षाएं उत्तीर्ण करके वे खंडवा के मिडिल स्कूल में शिक्षक हो गये। उनका हृदय राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत था। माधवराव सप्रे एवं अन्य साहित्यकारों के संसर्ग से उन्हें दिशा प्राप्त हुई। राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उन्होंने स्वतंत्र जीवन व्यतीत करते हुए कर्मवीर, प्रभा, प्रताप आदि पत्रिकाओं का सम्पादन किया। निर्भीकता उनके व्यक्तिव का सर्वप्रमुख गुण था। स्वाधीनता आंदोलन में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने राष्ट्र प्रेम से संबंद्ध अनेक ओजस्वी कविताएं लिखीं। हिम किरीटनी कविता संग्रह पर उन्हें देव पुरस्कार प्राप्त हुआ और सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें सम्मानार्थ डाक्ट्रेट की उपाधि से विभूषित किया। उनकी राष्ट्रीयता बलिदानवादी राष्ट्रीयता थी। वे हिन्दी साहित्य में राष्ट्रवादी कवि के रूप में विख्यात हुए। अंतिम समय में संघर्षों से जूझते हुए वे बीमार पड़े और सन् 1968 ई. में उनका स्वर्गवास हो गया। वे आजीवन साहित्य सेवा में लगे रहे और अपनी लेखनी से साहित्य के विभिन्न अंगों को समृद्घ किया।
*रचनाएं*
1. काव्य-हिमकिरीटनी, हिमतरंगिणी, माता, युग-चरण, समर्पण, वेणु लो गूंजे धरा, मरण-ज्वार, काजल आज रही आदि।
2. निबंध संग्रह- साहित्य देवता, अमीर इरादे, गरीब इरादे, आत्म-दीक्षा आदि।
3. नाटक- कृष्णार्जुन युद्घ
4. कहानी संग्रह-कला का अनुवाद, कहानी कहास और कहावत।
5. संस्मरण- समय के पांव
6. संपादन- प्रभा, प्रताप और कर्मवीर ।
*निबंधों का स्वरूप-*
पं. माखनलाल चतुर्वेदी के निबंधों को निम्नांकित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है-
1. व्यक्तित्व व्यंजक भावात्मक निबंध- साहित्य देवता के निबंध इसी प्रकार के निबंध है। इन निबंधों में भावना का प्रवाह एवं कवित्व मिलता है। इनमें लेखक ने चेतना के जलबिन्दुओं को साहित्य का ज्वार बनाना चाहा है। इस कारण ये निबंध गद्य-गीतों का स्वरूप ले लेते हैं। प्रेम, पालतू साहित्य, छलकत गगरी, संदेश वाहक आदि तो पूर्णतया गद्यगीत है।
2. प्रगतिशील विचारात्मक निबंध- अमीर इरादे, गरीब इरादे, संग्रह के निबंध चतुर्वेदीजी की प्रौढ़ एवं परिपक्व मानसिकता के बोधक हैं। इनमें जीवन की यथार्थवादी जटिलता परिलक्षित होती है। इनमें भावना का आवेग कम है और अनुभव की सघनता अधिक है। इनमें चतुर्वेदीजी ने जीवन से सम्बद्ध विभिन्न विचारों को भावुकता एवं व्यंग्य से संशलिष्ट करके व्यक्त किया है।
3. भाषण- आत्मदीक्षा में चतुर्वेदीजी के विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों का संग्रह किया गया है।
चतुर्वेदीजी के निबंध, कला, साहित्य और जीवन से संबंद्ध है। उनमें वस्तु-निष्ठता और आत्मव्यंजना की एकात्मकता है। उनमें चिन्तन की गहराई के साथ भावना का उन्मेष है। गद्य के साथ काव्य का जगमगाता सौंदर्य है।
4. भाषा-शैली- चतुर्वेदी जी की भाषा में भावोन्मेष के कारण सहज प्रवाह दिखाई देता है। तत्सम शब्दों के साथ देशज और विदेशी भाषाओं के शब्द उसमें घुल-मिल गए हैं। कहीं-कहीं भावों के वेग के कारण भाषा का साथ छूटता-सा दिखाई देता है। कहीं शब्दों की कमी और व्याख्या विवेचन के अभाव में भाषा सूत्रात्मक और अस्पष्टï हो गई है। परम्परा से हटकर किए गए प्रतीकों के प्रयोग के कारण भी अर्थ की दुरूहता उत्पन्न हो गई है। चतुर्वेदीजी की भाषा में कवित्व की छाप है। उसमें प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता, चित्रात्मकता, ध्वन्यात्मकता और अलंकारिता के दर्शन होते हैं। चतुर्वेदीजी की भाषा के स्वरूप के लिए यह उदाहरण देखिए-‘चाह की तीव्रता और चिन्तन का माधुर्य, ये दोनों ही तो वैज्ञानिक संघर्षण की वस्तुएं हैं, जिनसे चटख पडऩे वाले प्रकाश को अपने भिन्न-भिन्न रंगों के रक्त से गीला कर, अस्तित्व की अंगुलियों के द्वारा विविधता के पत्रक पर कलाकार विश्वनियन्ता की, अपने मनमोहन की, कोई तस्वीर खींचा करता है, जिसका आराध्य हर चीज में हो और पहुंच की तीव्रता के माप से वह अपना हो तो कलाकार की आंखों और अन्तर के प्रवेश के लिए प्रकृति का सारा वैभव और खतरों का समस्त भंडार अपने अंतर का द्वार क्यों न खोल दें? (अंगुलियों की गिनती की पीढ़ी)’
चतुर्वेदीजी की शैली के चार प्रमुख रूप दृष्टिगोचर होते हैं-
1. भावात्मक शैली- यह शैली चतुर्वेदीजी की सहज शैली बन गई है। साहित्य देवता के प्रत्येक निबंध में तो यह शैली दिखाई ही देती है, अन्य निबंधों में भी इसे लक्षित किया जा सकता है। इस शैली में भावात्मक तरलता और कवित्व के दर्शन होते हैं, यथा-‘उसकी शान में पर्वत का वैभव, निर्झर का शैशव और वन की मस्ती है। उसमें मधु है, शराब नहीं, आकर्षण है, तीव्रता नहीं, जिसका अंग-अंग झंकार है, जिसका रोम-रोम कमान है, जो रूप का स्वर और स्वर का रूप है।'(समय के पांव)
2. विचारात्मक शैली- चतुर्वेदीजी की यह शैली विचारात्मक निबंधों और भाषणों में मिलती है। चतुर्वेदीजी के विचार उनके अनुभव के प्रतिफल हैं। वे गंभीर से गंभीर विचार को अत्यंत सहज रूप में व्यक्त करते हैं। उनकी इस शैली में स्पष्टता और सरलता होती है, यथा-‘पहुंच का दूसरा नाम निर्णय है। चाहे वह जगदीश चन्द्र की हो, चाहे रवीन्द्र की और चाहे गांधी की। निर्णय, साहित्य का पथ-प्रदर्शन, जीवन का दिशा-दर्शन और सूझ का स्वप्न-दर्शन है।’ (दीक्षांत भाषण, 1941, मुम्बई, हिन्दी विद्यापीठ)
3. भाषण-शैली- चतुर्वेदीजी एक कुशल वक्ता रहे हैं। अत: उनके निबंधों में इस शैली का प्रभाव पाया जाता है। भाषणों में तो यह शैली मिलती ही है। चतुर्वेदीजी की भाषण-शैली में भावुकता, ओज, प्रवाह और आत्मीयता का समन्वय हुआ है, यथा-‘क्या हम निर्मित जमाने के बागी हैं? क्या हमने सचमुच रुढ़ि के बंधन तोड़े हैं? किस रुढ़ि के? बागी वह, जिससे समय आगे न बढ़ पाए। चिढ़कर समय रुकने के लिए कहे और फिर लाचार अनुगामी बना जिसके पीछे चला जाए। प्रतिकूलता का नाम बगावत नहीं हैं।'(चिन्तक की लाचारी, पृष्ठ-13)
4. व्यंग्यात्मक शैली- चतुर्वेदी जी ने कहीं-कहीं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की भांति तीखे व्यंग्य किए है। यह व्यंग्य देखिए- ‘दौड़-धूप के देवताओं, कहीं इन निकम्मों को भी जीने दो। रेलगाड़ी के पथिकों, संकल्पों के आने-जाने के लिए भी थोड़ी जमीन छोड़ो।’ (अंगुलियों की गिनती की पीढ़ी) यहां चतुर्वेदीजी ने प्रतिस्पर्धी व्यक्तियों पर व्यंग्य किया है। चतुर्वेदीजी हिन्दी गद्य की नवीन शैली के पुरस्कर्ता हैं। उन्होंने हिन्दी को गद्य-काव्य की नवीन विधा से परिचित कराया। निबंधों को भावना की दीप्ति दी। कवित्व का वैभव प्रदान किया। इस रूप से उन्होंने हिन्दी-निबंध-साहित्य में अपने व्यक्तित्व की छाप लगाई। अत: कवि होने के साथ ही एक निबंधकार के रूप में उनका योगदान अविस्मरणीय है। (विभूति फीचर्स)
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