(डॉ. सुधाकर आशावादी -विनायक फीचर्स)
कब कोई राजनीतिक विचार किसी दल को सत्ता का स्वाद चखा दे, अब कब कोई विचार सत्ता से अलग कर दे, यह कोई नहीं जानता। इसी कारण देश की राजनीति में विघटनकारी जातीय गठबंधन की राजनीति कारगर सिद्ध होगी या सोशल इंजीनियरिंग पर आधारित सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय की राजनीति , यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, किन्तु लंबे समय तक हाशिये पर रहने वाली बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर अपनी पूरी शक्ति के साथ लोकतंत्र के चुनावी मैदान में उतर आई है। उत्तर प्रदेश में पिछड़े,दलित और अल्पसंख्यक के नाम पर समाज को बांटने में जुटी समाजवादी पार्टी के लिए यह खतरे की घंटी सिद्ध हो सकता है।
बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की स्मृति में लखनऊ में आयोजित सुश्री मायावती की रैली में बसपा समर्थकों ने जिस प्रकार से बसपा की जड़ों को मजबूत करने का जज्बा दिखाया है, उससे लगता है कि गहन मंथन के बाद बसपा नए प्रारूप में उभर कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना दमखम दिखाएगी तथा 2027 में सत्ता में आने का दिवास्वप्न देखने वाली समाजवादी पार्टी तथा अन्य राजनीतिक दलों के लिए नई चुनौतियां खड़ी करेगी।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में बसपा की बरसों तक बड़ी उपस्थिति रही है। एक दौर था कि जब प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा हाशिये पर चली गई थी। अपने जातीय समीकरणों के कारण समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सत्ता का खेल खेलते रहे। सुश्री मायावती ने 18 सितंबर साल 2003 को पहली बार पार्टी की कमान संभाली थी। इसके बाद बसपा सुप्रीमो ने जमकर मेहनत की और चार साल में ही पार्टी के लिए एक ऐसा स्वर्णिम अवसर लाने में सफल हुईं जो इतिहास में दर्ज हो गया। वह साल था 2007 जब उत्तर प्रदेश में पहली बार प्रचंड बहुमत की सरकार बनाई थी। सुश्री मायावती वर्ष 2007 में चौथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, यह उनके राजनीतिक जीवन का स्वर्णिम काल था। साल 2003 से लेकर 2024 तक मायावती सात बार पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुकी हैं। वर्ष 2003 से लेकर साल 2024 तक बीएसपी सुप्रीमो ने पार्टी में कई उतार चढ़ाव देखे हैं। वर्तमान में जब उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार पूरी दृढ़ता के साथ गतिशील है तथा विगत लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को अति आत्मिश्वास के कारण अनेक संसदीय क्षेत्रों में हार का सामना करना पड़ा तथा समाजवादी पार्टी की कृपा से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में कदम रखने की जगह मिली, उसका कारण बसपा की तत्कालीन चुनावों में सक्रिय भागीदारी न होना भी रहा है। लखनऊ में सुश्री मायावती की हुंकार ने यह जता दिया है, कि आज भी बहुजन समाज के शुभचिंतकों के हृदय में बसपा धड़कती है। पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक के नाम पर विघटन का खेल खेलने वाली समाजवादी पार्टी के दिन लद गए हैं। समझना चाहिए कि सबका साथ सबका विकास की नीतियां ही राजनीतिक दलों को सत्ता की संजीवनी प्रदान कर सकती हैं। जातीय विघटनकारी षड्यंत्रों को जनता समझ चुकी है। वह किसी भी राजनीतिक दल के विघटनकारी मंसूबों को सफल नहीं होने देगी। बसपा इस बार अपनी नई सोच के साथ यदि चुनाव मैदान में अपना दमखम दिखाती है, तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय विकल्प के रूप में उभर सकती है। ऐसा समझा जाना चाहिए। *(विनायक फीचर्स)*
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