सरस्वती वन्दना

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कविता

शुभवस्त्रे हंस वाहिनी वीणा वादिनी शारदे ,
डूबते संसार को अवलंब दे आधार दे !

हो रही घर घर निरंतर आज धन की साधना ,
स्वार्थ के चंदन अगरु से अर्चना आराधना

आत्म वंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है,
चेतना जग की जगा मां वीणा की झंकार दे !

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सुविकसित विज्ञान ने तो की सुखों की सर्जना
बंद हो पाई न अब भी पर बमों की गर्जना

रक्त रंजित धरा पर फैला धुआं और औ” ध्वंस है
बचा मृग मारीचिका से , मनुज को माँ प्यार दे

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ज्ञान तो बिखरा बहुत पर , समझ ओछी हो गई
बुद्धि के जंजाल में दब प्रीति मन की खो गई

उठा है तूफान भारी , तर्क पारावार में
भाव की माँ हंसग्रीवी , नाव को पतवार दे

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चाहता हर आदमी अब पहुंचना उस गाँव में
जी सके जीवन जहाँ , ठंडी हवा की छांव में

थक गया चल विश्व , झुलसाती तपन की धूप में
हृदय को माँ ! पूर्णिमा सा मधु भरा संसार दे।(विनायक फीचर्स)

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