साहित्य की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो केवल अपने लेखन से नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व, सहजता और साहित्यकारों के प्रति आत्मीय व्यवहार से भी पीढ़ियों तक याद किए जाते हैं। दादा लखमी खिलानी उन्हीं नामों में से एक हैं। 2 अक्टूबर को उन्होंने अपने जीवन के 90 वर्ष पूरे किए। इस अवसर पर जब सुबह उनसे मेरी बातचीत हुई, तो उनकी आवाज़ में वही पुराना उत्साह और वही आत्मीयता झलक रही थी, जिसने पिछले चार दशकों से हमारे बीच एक सुदृढ़ संबंध बनाए रखा है।
उन्होंने बताया कि फिलहाल वे अपने बेटे के पास बेंगलुरु में हैं और जीवन के इस पड़ाव पर भी साहित्य सृजन में निरंतर सक्रिय हैं। सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि उनकी कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक शीघ्र प्रकाशित होने वाली है। यह तथ्य स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि लखमी खिलानी का लेखन केवल सिंधी साहित्य तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी पहुँच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक है।
बातचीत के दौरान जब मैंने उन्हें बधाई दी तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए। मैंने उनसे कहा कि उनकी कुछ कहानियाँ आज भी मेरी स्मृतियों में जीवंत हैं। इनमें “शिकार काकातुआ” और “अंधी कविता” विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। “अंधी कविता” पर भोपाल में नाटक का मंचन भी हुआ, जिसने दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ी। इसी तरह उनकी एक अन्य प्रसिद्ध कहानी “रेत का किला” भी बहुत चर्चित रही। इसका नाट्य रूपांतरण सिंधी में कई बार मंचित हुआ और भोपाल के रंगकर्मियों ने इसे बार-बार प्रस्तुत किया।
नाटक मंचन की यादों को साझा करते हुए खिलानी दादा ने भोपाल के रंग निर्देशक अशोक बुलानी और कविता इसरानी का भी स्मरण किया। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता है कि वे सहयोग देने वालों को हर अवसर पर याद करते हैं।
*विनायक फीचर्स और दिनेश चंद्र वर्मा का स्मरण*
बातचीत के दौरान उन्होंने विशेष रूप से भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार और विनायक फ़ीचर्स के संस्थापक दिनेश चंद्र वर्मा का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि वर्मा जी ने उनकी सैकड़ों कहानियों का हिंदी के अखबारों में प्रकाशन करवाया और उन्हें पाठकों तक पहुँचाया। यही कारण है कि हिंदी पाठकों के बीच भी लखमी खिलानी का साहित्य जाना-पहचाना नाम बना। आज भी विनायक फीचर्स की यह परंपरा निरंतर गतिमान है।
स्वर्गीय दिनेश चंद्र वर्मा का उन्होंने भावपूर्ण स्मरण करते हुए कहा कि यदि ऐसे लोग न होते तो सिंधी लेखन का हिंदी जगत से इतना गहरा संबंध नहीं बन पाता।
*परिवार और जीवन शैली*
लखमी दादा का जीवन एक जगह तक सीमित नहीं रहा। वे साल में कुछ महीने बैंगलुरु, पुणे और कोलकाता में रहते हैं और बेटे-बेटी दोनों के साथ समय बिताते हैं। यह जीवनशैली उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करती रही है। उनकी बेटी और बेटा दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं, लेकिन उनके साथ रहकर लखमी दादा साहित्य और परिवार के बीच अद्भुत संतुलन बनाए रखते हैं।
*पुरस्कार और मान्यता*
लखमी खिलानी को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त है। उनकी पुरस्कृत कृति “गुफा के उस पार” सिंधी साहित्य की एक ऐतिहासिक उपलब्धि मानी जाती है। यह कृति केवल कहानी का संग्रह भर नहीं, बल्कि जीवन, समाज और संस्कृति की गहरी परतों को उजागर करने वाला दस्तावेज़ है। इस सम्मान ने उन्हें न केवल सिंधी भाषा के साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान दिया बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिष्ठित किया।
*आदिपुर का नवाचार*
खिलानी दादा का योगदान केवल लेखन तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने गुजरात के आदिपुर में सिंधी राइटर्स और कलाकारों की कॉलोनी बसाने का नवाचार किया। यह पहल आज भी स्मरणीय है क्योंकि विस्थापन और बिखराव के बाद सिंधी समाज के लिए एक साझा सांस्कृतिक केंद्र बनाना ऐतिहासिक कार्य था। इससे अनेक युवा लेखकों और कलाकारों को मंच मिला और एक नई पीढ़ी का आत्मविश्वास बढ़ा।
*आत्मीयता और मित्रता*
उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि वे अपने से जूनियर लेखकों और कलाकारों के साथ मित्रता का निर्वाह करते रहे। मैंने स्वयं 1984 में कोलकाता में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा आयोजित कहानी लेखन कार्यशाला में उन्हें करीब से देखा था। यह कार्यशाला कोलकाता के एस्प्लेनेड क्षेत्र की सिंधी हिंदू धर्मशाला में हुई थी, जहाँ अलग-अलग प्रांतों से लेखक पहुँचे थे। उस समय सुंदरी उत्तमचंदानी भी मार्गदर्शक के रूप में उपस्थित थीं। उस कार्यशाला के दौरान हम सबने पार्क स्ट्रीट, न्यू मार्केट और दक्षिणेश्वर जैसी जगहों की सैर की थी। हावड़ा ब्रिज पर घूमना भी अविस्मरणीय रहा। उन दिनों लखमी दादा ने हम सब नव लेखकों का जिस आत्मीयता से सत्कार किया था, वह आज भी स्मृतियों में अंकित है।
*साहित्यकारों का सम्मान*
आज भी लखमी दादा साहित्यकारों की उपलब्धियों और व्यक्तित्व पर ध्यान देते हैं। उन्होंने हमारी हाल की बातचीत में मोहन हिमथानी की कार्यकुशलता का विशेष उल्लेख किया। यह उनकी दृष्टि की व्यापकता को दर्शाता है। वे केवल अपने लेखन या अपने अनुभवों में सीमित नहीं रहते, बल्कि दूसरों की रचनात्मकता और साहित्यिक योगदान की भी सराहना करते हैं।
आज 90 वर्ष की उम्र में भी उनकी आवाज़ में वही उत्साह, वही जीवन ऊर्जा और वही सृजनशीलता है। उनकी कहानियाँ केवल साहित्य नहीं, बल्कि समाज के अनुभवों, संवेदनाओं और संघर्षों की जीवित झलक हैं। वे केवल सिंधी साहित्य के स्तंभ नहीं, बल्कि भारतीय साहित्य की एक धरोहर हैं।
उनका जीवन केवल एक लेखक का जीवन नहीं, बल्कि एक पीढ़ी, एक संस्कृति और एक समाज का इतिहास है। उनकी कहानियाँ, उनका व्यक्तित्व और उनकी आत्मीयता आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनी रहेगी।
(अशोक मनवानी-विनायक फीचर्स)











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