भवन निर्माण में वास्तु शास्त्र की उपयोगिता

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हर मनुष्य की एक महत्वाकांक्षा अवश्य होती है कि उसका स्वयं का घर हो। वह उसे पाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है। जब वह इसे पाने के करीब पहुंचता है, तब अपनी सुविधानुसार भवन का मानचित्र बनाना प्रारंभ करता है। वह मानचित्र यदि वास्तुशास्त्रानुरूप हो तो उत्तम फल, सुख, धनसंपत्ति, स्वास्थ्य प्रदान करता है। यदि उसमें अनजाने में कोई दोष आ जाये तो बहुत अधिक कष्टïकारी स्थिति निर्मित होती है। यह स्थिति आसानी से नहीं पहचानी जा सकती, कहीं प्रेत आत्माएं उत्पात करती हैं तो कहीं स्वास्थ्य खराब होता है, लाभ की संभावनाएं भी क्षीण होती हो जाती हैं, कोर्ट कचहरी में मामला उलझ जाता है। इन सब घटनाओं को वास्तुशास्त्र के अलावा अन्य किसी शास्त्र से ठीक नहीं किया जा सकता।
वास्तुशास्त्रद्धते, तस्य न स्याल्ल शलनिश्चय:।
तरमाल्लोकस्य कृपया शास्त्रयेतदुर्दीयते॥
जिस प्रकार हम अपनी सुविधानुसार कमरे, बाथरूम, आंगन का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार भवन निर्माण के समय भवन में उपस्थित देवताओं का ध्यान रखना भी आवश्यक है। यदि इन देवताओं का स्थान प्रभावित होता है तो वह भवन के रहवासियों को परेशान करने लगते हैं। वास्तु की सम्पूर्ण कलाओं का वर्णन संक्षिप्त शब्दों में संभव नहीं है। इसलिए इस लेख में भवन निर्माण के मुख्य बिन्दुओं को समझाने का प्रयास किया जा रहा है, जिन्हें अपनाकर वास्तु दोष से मुक्त हो सकते हैं। भवन निर्माण में भूमि के बाद सर्वप्रथम महत्व दिशाओं को दिया गया है। दिशाओं से यह निर्धारित होता है कि वास्तुदेवता का कौन सा अंग किस दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। भवन निर्माण में 8 दिशाएं महत्वपूर्ण हैं। जो क्रमश: इस प्रकार हैं- 1. उत्तर, 2. उत्तर पूर्व (ईशान), 3. पूर्व, 4. दक्षिण पूर्व (आग्नेय), 5. दक्षिण, 6. दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य), 7. पश्चिम, 8. उत्तर पश्चिम (वायव्य)
इन आठों दिशाओं का निम्न देवता प्रतिनिधित्व करते हैं, उत्तर-कुबेर, ईशान-रूद्र, पूर्व-इंद्र, आग्नेय-अग्नि, दक्षिण-यम, नेऋत्य-अनंत, पश्चिम-वरुण, वायव्य-वायु। भवन का मानचित्र बनाते समय दिशाओं एवं उनके देवताओं का स्थान निश्चित करते हुए कक्षों की स्थापना करें। भगवान विश्वकर्मा ने जो ज्ञान पृथ्वीवासियों को दिया उनके अनुसार भूखण्ड को सोलह भागों में विभाजित कर विभिन्न कक्षों के स्थान को निश्चित किया जाना चाहिए। यह स्थान है- 1. पूजा स्थल, 2. कोषागार, 2. स्नान गृह, 4. दधिमंथन स्थान, 5. रसोई, 6. घृतादि स्थल, 7. शयन कक्ष, 8. शौचालय, 9. शस्त्रागार, सूतिका गृह, 10. स्वाध्याय कक्ष, 11. भोजन कक्ष, 12. दण्डकक्ष, 13. पशुशाला, 14. रतिगृह, 15. औषधिगृह, 16. भण्डारित गृह आदि।
वर्तमान समय में दधिमंथन, घृताधिस्थल, शस्त्रागार, सूतिका गृह, रतिकक्ष, दण्ड कक्ष, औषधिगृह को अलग-अलग स्थान देना संभव नहीं है, अत: आवश्यक कक्षों की जानकारी प्रस्तुत की जा रही है।
1. *भवन का मुख्य द्वार* – उत्तर या पूर्व दिशा में रखना व्यक्ति के बहुमुखी विकास में सहायक होता है। इस द्वार पर मांगलिक चिन्ह अंकित होना चाहिए। मांगलिक चिन्हों में ऊँ, कलश, गणेश या अपनी-अपनी धार्मिक मान्यतानुसार रख सकते हैं।
2. *पूजा स्थल*- ईशान कोण इसके लिए सर्वोत्तम होता है। भगवान का मुंह पश्चिम दिशा की ओर रहे ताकि सेवक का मुंह पूर्व दिशा की ओर रहे, इससे पूजा अर्चना में अच्छी सफलता प्राप्त होती है।
3. *रसोई घर*- आग्नेय कोण इसके लिए सुरक्षित स्थान है। इस कोण में बिजली का मीटर बोर्ड, बल्व, स्विच लगाना शुभ होता है। अग्नि से संबंधित कोई भी यंत्र नहीं लगाना चाहिए।
4. *शयनकक्ष*- दक्षिण दिशा में होना चाहिए। यह दिशा सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम मानी गई है। सिरहाना दक्षिण एवं पैर उत्तर में होना चाहिए। इससे स्वास्थ्य अच्छा रहता है एवं आर्थिक लाभ के लिए भी उत्तम है।
5. *शौचालय*- शौचालय के लिए दक्षिण-नैऋत्य या उत्तर-वायव्य के बीच का स्थान अच्छा माना गया है इसका उद्देश्य यह भी है कि शौच के समय मुंह उत्तर या दक्षिण दिशा में रहे। सीढ़ी के नीचे शौैचालय बनाना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।
6. *अध्ययन कक्ष*- पूजा स्थान के साथ या पश्चिम में भण्डार गृह के साथ बनवाना चाहिए। पढ़ाई के समय मुंह पूर्व या उत्तर की ओर होना चाहिए। इससे चुम्बकीय प्रवाह के कारण याददाश्त अच्छी रहती है।
7. *भण्डार गृह*- नैऋत्य दिशा में सारा वेस्ट मटेरियल एवं अन्य भारी सामान रखना चाहिए। यह कोण जितना भारी होगा उतना लाभदायक होगा।
8. *जल के स्त्रोत*- टंकी, कुआं, ट्यूबवेल के लिए पूर्व, ईशान, उत्तर, वायव्य दिशा उपयुक्त मानी गई है। आग्नेयकोण में पानी के स्रोत परिवार के मुखिया के लिए शुभ नहीं होते।
9. *गेस्ट रूम*- वायव्य से पूजा स्थल के बीच का स्थान मेहमानों के लिए शुभ होता है। इस कक्ष में उत्तर-पूर्व दिशा खुली रखना चाहिए।
इसके अतिरिक्त अन्य आवश्यक निर्देश इस प्रकार हैं। भवन में काम आने वाली लकड़ी नई होना चाहिए। सीढिय़ां सीधे हाथ की ओर मुड़ी हुई होना चाहिए, मुख्यद्वार काला पुता होना चाहिए। भवन के चारों ओर खुला स्थान होना चाहिए, पूर्व दिशा हल्की एवं दक्षिण दिशा भारी होना चाहिए। नालियों का बहाव पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। पश्चिमी-पूर्वी, उत्तरी दीवारों पर खिड़कियों का निर्माण शुभ होता है। दरवाजे व खिड़कियां सम संख्या में होना चाहिए। बहुमंजिला इमारत में उत्तर-पूर्व की ऊंचाई दक्षिण-पश्चिम की तुलना में कम होना चाहिए।
भवन निर्माण का कार्य दक्षिण दिशा से प्रारंभ करना चाहिए एवं इस दिशा की दीवारें भी मोटी हों तो अच्छा रहेगा। इस दिशा से अतृप्त एवं अदृश्य आत्माओं के घर में प्रवेश की संभावना रहती है। अत: सर्वप्रथम इसी दिशा को बंद करें, इसमें कोई द्वार न हो तो अच्छा रहता है। इसके विपरीत उत्तर पूर्व दिशा में खाली स्थान अधिक छोड़ने से वहां से दैवीय शक्तियों का आगमन होता है, उनका स्वागत करें। इससे दैवीय शक्तियां हमारी मदद करती हैं और घर में खुशहाली का प्रवेश होता है। वास्तु शास्त्रानुरूप भवन निर्माण बतला देगा कि भवन में रहने वाला व्यक्ति कैसा जीवन व्यतीत करेगा। यदि आप सुखी, सम्पन्न एवं शांतिपूर्ण जीवन के अभिलाषी हैं तो वास्त्रुशास्त्र के सिद्धांतों को अपनाकर अपने रहने के लिए भवन निर्मित करें।

 

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(आचार्य राजेश – विभूति फीचर्स)

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