कुमाऊं के परम न्यायकारी एवं महापराक्रमी लोक देवता गोलज्यू की ऐतिहासिक व पौराणिक दिव्य गाथाएँ समूचे मानस क्षेत्र ( कुमाऊं ) में बड़े ही आदर, प्रेम, श्रद्धा एवं भक्ति भाव से गायी जाती हैं।
विशेषरूप से ग्रामीण अंचलों में लगने वाली ” गोलू जागर ” में भाव-विभोर कर देने वाली अनेकानेक रहस्यमयी व रोमाचक व ऐतिहासिक गाथाएं मुक्त कंठ से गायी जाती है और ग्रामीण श्रद्धालु बड़ी ही आस्था व विनय भाव से गोलज्यू की गाथाएँ श्रवण कर स्वयम को धन्य मानते हैं।
सामान्यतः किसी कामना के पूर्ण होने पर, धार्मिक पर्व- उत्सव पर, शुभ कार्य सम्पन्न होने की खुशी में या फिर समय-समय पर अपने परम आराध्य के सम्मान में गोल ज्यू की जागर का आयोजन होता है । जागर के माध्यम से गोलज्यू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए सदैव कृपा दृष्टि बनाये रखने की प्रार्थना की जाती है। ऐसी जागर गॉव- गांव में प्रतिष्ठापित गोलू देवता मन्दिरों में अक्सर देखी जा सकती है।
प्राकृतिक सौंदर्य से घिरे चम्पावत का गोरल चौड़ क्षेत्र गोल ज्यू देवता की प्रमुख एवं प्रारम्भिक लीला भूमि मानी गयी है। इसी भूमि से गोलज्यू की अलौकिक लीलाओं का विस्तार देवभूमि उत्तराखण्ड के अलग-अलग स्थानों में हुआ ।
पावन कूर्म पर्वतांचल में सदियों से पूजित गोरल चौड़ स्थित गोलू देवता का दिव्य -भव्य दरबार चम्पावत से मंच- तामली मोटर मार्ग पर बसे कनलगांव में स्थित है। जिला मुख्यालय का समीपवर्ती देवस्थल होने के कारण स्थानीय भक्तों की यहाँ स्वाभाविक उपस्थिति देखी जाती है । दूर-दराज क्षेत्रों एवं बाहरी राज्यों से भी बस, टैक्सी अथवा निजी वाहनों से श्रद्धालु बड़ी आसानी से यहाँ पहुंच सकते हैं।
टनकपुर से चम्पावत के लिए हर समय बस अथवा टैक्सी सेवाएं सुलभ रहती हैं । सड़क मार्ग पहले से काफी बेहतर बन जाने से चम्पावत तक की 75 किमी की दूरी 2 घंटे में तय की जा सकती है। टनकपुर शहर में ही यहाँ का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन भी है । यही कारण है कि वर्तमान में न्यायकारी राजा गोलू देवता का यह पावन दरबार देश के सभी राज्यों से सीधा जुड़ा हुआ है। नजदीकी हवाई अड्डा लगभग 235 किमी दूर पन्तनगर में स्थित होने से विदेशों से भी दर्शनार्थी व श्रद्धालु आसानी से इस देव दरबार तक पहुंच सकते हैं।
समुद्र सतह से लगभग 5 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित गोरल चौड़ गोलू मन्दिर चारों ओर से हरी-भरी पहाड़ियों से आच्छादित है। इसलिए सारा दृष्य बड़ा ही मनोहारी लगता है।आगन्तुकों को यहाँ पहुंचकर एक अलग ही शान्ति व आनन्द की अनुभूति होती है। यद्यपि हाल के वर्षों में इस दरबार के आस-पास बसासत काफी बढ़ गयी है, नये-नये भवन निर्मित हैं, बावजूद इसके गोल ज्यू का यह पावन दरबार अलौकिक अनुभव सहज ही करा देता है।
गोरल चौड़ के इस पावन गोलू दरबार में नित्य दर्शन-पूजन, भजन- आरती के अलावा समय – समय पर गोलू जागर, भागवत कथा, शिव पुराण, अखण्ड रामायण व सुन्दर काण्ड पाठ समेत हवन-यज्ञ आदि अनेक धार्मिक अनुष्ठान तथा भण्डारे होते रहते हैं। अवसर विशेष पर जनेऊ संस्कार, विवाह आदि भी सम्पन्न कराये जाते हैं। नवरात्रि, शिवरात्रि, सक्रान्ति, पर्व आदि अवसरों पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु आमतौर पर सपरिवार अपने आराध्य की कृपा प्राप्त करने को पहुंचते हैं।
गोलज्यू को गोलू देवता, ग्वल देवता, ग्वेल देवता, गोरिया देव, गोरल देव, गोरिल देव तथा दूधाधारी- कृष्णावतारी के नाम से भी पुकारा जाता है। यद्यपि चम्पावत इनकी मूल लीला स्थली अथवा राजधानी मानी गयी है, परन्तु कुमाऊं के अल्मोड़ा में, चितई, भवाली के समीप घोड़ाखाल, ताड़ीखेत के नजदीक चमड़खान, तल्ला कत्यूर, गैराड़, उदयपुर, गगोलीहाट, भण्डारी गांव समेत तराई- भाबर क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक जागृत मन्दिर विद्यमान हैं।
गॉवों में स्थापित न्याय के देवता गोलू मन्दिरों को स्थानीय भाषा में ” थान ” कहा जाता हैं, जिनके प्रति ग्रामीणों की गहरी आस्था जुड़ी होती है। मंगल अवसरों पर ग्रामीण गोलज्यू की महान मानवीय गाथाओं का गुणगान करते हैं, सर्वत्र सुख-समृद्धि एवं शान्ति की कामना करते हैं।
एक राजा के रूप में गोलज्यू की न्याय नीति, लोक कल्याण की नीति, लोक आचरण व लोक मर्यादा की नीति उनकी उदारता, उदात्त चरित्र, दिव्य व्यक्तित्व एवं महान आदर्शों को दर्शाता है।
गोलज्यू के जन्म तथा सम्पूर्ण जीवन यात्रा को लेकर अनेक ऐतिहासिक, चमत्कारिक व दिव्य गाथाएं पौराणिक काल से ही लोक प्रचलित हैं। कहा जाता है कि नेपाल के धौली- धुवाकोट में एक बड़े ही धर्मपरायण राजा हालरई राज्य करते थे। ईश्वर की भक्ति के प्रसाद स्वरूप उनको एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम झालरई पड़ा । अत्यधिक परोपकारी स्वभाव तथा कुशाग्र बुद्धि का वह बालक आगे चलकर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी बना । एक राजा के रूप में उनकी न्याय नीति, परोपकार एवं निर्मल आचरण से प्रजा के बीच उनका बहुत अधिक सम्मान था। राज्य में सर्वत्र सुख-समृद्धि थी, परन्तु सात रानियाँ होने के बाद भी उनकी कोई संतान नहीं थी। इसी चिन्ता में राजा झालरई अक्सर व्यथित रहते थे। एक दिन उन्होंने वंश वृद्धि व उत्तराधिकारी को लेकर अपनी चिन्ता कुलगुरु के समक्ष रखी । कुलगुरु ने राजा झालरई की कुण्डली का गहन अवलोकन के पश्चात बताया कि उनकी कुण्डली में आठवीं रानी का योग है और उसी से एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी, जो आगे चलकर इस राज्य के अन्य भूभाग का एक महाप्रतापी, महापराक्रमी, परोपकारी व न्यायकारी राजा बनेगा । सभी लोग उसे देवता की तरह पूजेंगे । यह सुनकर राजा को बड़ा सन्तोष हुआ । दैवयोग से एक दिन आखेट के दौरान प्यास से व्याकुल पानी की तलाश करते हुए राजा झालरई की भेंट एक रूपवती नारी से हो गयी सरोवर का जल पीने से पूर्व उस नारी ने राजा को चेताया कि यह सरोवर मेरा है और बिना अनुमति दुस्साहस करने वाला दण्ड का भागी बनता है। रूपवती नारी ने राजा के मूर्छित सैनिकों की ओर इशारा करते हुए कहा कि बिना अनुमति जल लेने के कारण ही इन्हें दण्ड मिला है। इस पर राजा ने विनम्रभाव से अनुमति मांगी और शीतल जल से अपनी प्यास शान्त की ।सुन्दर नारी के रूप – सौन्दर्य पर मोहित राजा झालरई ने उस सुन्दरी का परिचय जानना चाहा तो उसने कहा कि वह पंचदेवों की बहन कालिंका है। इस पर राजा ने पंचदेवों का आहवान किया तथा उनको साक्षी मानते हुए युवती के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा । पंचदेवों की सहमति से कालिंका ने विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वैदिक परम्परा से दोनों का विवाह हो गया।
एक अन्य कथा के अनुसार कालिंका बचपन से ही अपने गुरु के सानिध्य में तपस्या हेतु वन में चली गयी थी। एक दिन राजा झालरई आश्रम में पहुंचे और दिव्य तेज की साक्षात मूर्ति कालिंका को देख कर उसके गुरु को अपनी व्यथा बताई और कालिंका से विवाह कराने को गुरु जी से प्रार्थना की ।गुरु जी ने अपनी शिष्या कालिंका का विवाह राजा झालराई से करा दिया। रूपवान, गुणवान व संस्कारित पत्नी पा कर राजा को पूर्व में अपने गुरु की कही गयी बात साकार होने का पूरा विश्वास हो गया। राजा अपनी उस आठवीं रानी को अत्यधिक प्रेम करता था, जिस कारण अन्य सातों रानियां कालिंका से ईर्ष्या रखने लगी।समय बीतने के साथ ही रानी कालिंका गर्भवती हुई। इस समाचार से राजा और उसकी प्रजा में खुशी छा गयी। हर तरफ उत्सव तथा उल्लास का माहौल बन गया, परन्तु सातों रानियां निराश थी। उन्होंने एक रणनीति के तहत कालिंका को अपने स्नेह पूर्ण व्यवहार से प्रभावित कर दिया। रानी कालिंका सभी सातों रानियों को अपना सबसे अच्छे शुभ चिन्तक मानकर उन्हीं के दिशा-निर्देशन में रहने लगी। प्रशवकाल आया तो सातों रानियों ने कालिंका की आखों पर पट्टी बांधते हुए कहा कि ऐसा करने से भाग्यशाली व आज्ञाकारी सन्तान की प्राप्ति होती है। जैसे ही शिशु का जन्म हुआ सातों रानियों ने चुपचाप उस नवजात दिव्य बालक को कपड़े में लपेटकर दूर गौशाले में डाल दिया और उसकी जगह एक ल्वाड़ यानी सिलबट्टा रखते हुए कालिंका की आखों से पट्टी हटाई ।
रानी कालिंका यह देखकर सहम गयी और सातों बड़ी रानियों के ताने सुनकर बेहोश हो गयी। राजा को जब यह समाचार मिला तो वह अपने भाग्य को कोसने लगा । प्रजा भी निराश हो गयी, परन्तु सातों रानियां अपने पाप कर्म से बहुत प्रसन्न थी। दूसरे दिन जब वे सभी रानियां रात के अंधेरे में गौशाला गयी तो शिशु को हंसता-खेलता देख कर हैरान-परेशान हो गयी। ईर्ष्या की आग में जलती रानियों ने चुपचाप बालक को जंगल में बिच्छु घास के बीच मरने को छोड़ दिया । वहाँ भी जीवित देख फिर उन्होंने गोबर- मिट्टी से ढक कर मारने का प्रयास किया । सब प्रकार से असफल रहने पर पापी रानियों ने उस लीलाधर शिशु को लोहे के बक्शे में बन्द कर, उस पर सात ताले लगाये, फिर उस लोहे की पेटी को काली नदी में डाल दिया
सात दिन और सात रात लगातार बहते हुए वह लौह पेटिका गौरीघाट पहुंची और वहाँ भी सप्ताह भर तक गहरे जल में डूबी रही। इसी बीच दैवयोग से भानाधेवर नाम का एक मछुआरा मछली पकड़ने आया । उसने अपना जाल नदी में फैंका तो वह पिटारी जाल में फँस गयी। लगातार प्रयास के बाद जब जाल नहीं खींच पाया तो बड़ी मछली फंसने के भ्रम मे उसने अपनी पत्नी के साथ मिलकर जाल खींचा, देखा तो जाल में एक लोहे की पिटारी फंसी है।जिज्ञासावश पिटारी निकाल कर किसी तरह खोली गयी तो उसमें एक नन्हा बालक अंगुली चूस रहा है और मस्ती से हाथ – पॉव छटपटा रहा है। यह सब देख निःसन्तान दोनों पति-पत्नी आश्चर्य चकित रह गये, लेकिन ईश्वर का उपहार समझकर बालक को घर ले आये और स्नेहपूर्वक उसका लालन-पालन करने लगे। गोरी घाट में मिलने के कारण बालक का नाम गोरिया रखा गया।
धीरे-धीरे गोरिया बड़ा हो गया । एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि धौलीकोट में उसके पिता राजा झालरई, माता कालिंका और सातों सौतेली माताएं एक राजमहल में बैठे हुए हैं। प्रातः जगने पर उसने स्वप्न की बात अपने धर्म के माता-पिता यानी मछुआरा दम्पत्ति को बताई। सारी बात सुनकर मछुआरा दम्पत्ति ने भी गोरिया को सारी सच्चाई बता दी और उसे अपने असली माता-पिता के पास जाने की सलाह दी । गोरिया ने अपनी बालहठ दिखाते हुए कहा कि वह घोड़े में बैठ कर ही वहाँ जायेगा । गरीब दम्पत्ति ने बालक की हठ को मानते हुए काठ यानी लकड़ी का एक घोड़ा बनवाकर उसे दे दिया।
इसी घोड़े से गोरिया की नर लीलाएं प्रारम्भ हुई । उसने घोड़े में प्राण फूंक दिये और अपने पालक माता-पिता से आशीर्वाद लेकर धूमाकोट के लिए चल पड़ा । गगन मण्डल पर काठ के घोड़े पर विचरते हुए सात दिन में गोरिया ने धूमाकोट की राजधानी में अपना घोड़ा उतारा । जहाँ पर घोड़ा उतरा वह स्थान ” राज पनघट ” नाम से प्रसिद्ध था। गोरिया अपने घोड़े के साथ वहाँ पर विश्राम करने लगे । कुछ ही क्षण में हाथों में स्वर्ण घट यानी घड़े लिए सातों रानियां सज-धज कर वार्तालाप करते हुए वहाँ आ पहुंची। ज्योंही वे जल भरने को आगे बढ़ीं, बालक ने बीच मे आ कर कहा- मेरा घोड़ा प्यासा है, पहले इसे पानी पीने दो । अट्टहास करते हुए रानियां बोली , अरे मूर्ख बालक क्या काठ का घोड़ा भी पानी पीता है? तपाक से गोरिया ने कहा जब स्त्री पत्थर के सिलबट्टे को जन्म दे सकती है तो फिर काठ का घोड़ा पानी क्यों नहीं पी सकता । यह सुनते ही रानियां अवाक रह गयी और पानी भरकर चुपचाप वहाँ से निकल गयी । रास्ते में चिन्तित होकर आपस में बतियाने लगी कि यह कैसा विचित्र बालक है जो हमारे सारे भेद जानता है। हैरान-परेशान रानियां भेद खुलने के भय से चिन्तित हो उठी, लेकिन गोरिया की लीला से यह बात सर्वत्र फैल गयी और अन्ततः राजदरबार में भी बात पहुंचा दी गयी। राजा के आदेश पर बालक काठ के घोड़े में सवार होकर राजदरबार में उपस्थित हो गया। परिचय पूछने पर गोरिया ने राजा को दण्डवत प्रणाम करते हुए कहा कि वह अपने माता-पिता से मिलने आया है। माता-पिता का नाम पूछे जाने पर बालक ने कहा रानी कालिंका मेरी माता हैं और आप राजा झालरई मेरे पिता हैं। राजा कुछ समझ पाता कि गोरिया ने पूर्व में अपनी माता के साथ हुए षड्यन्त्र की तथा अपनी पूरी सच्चाई सामने रख दी । राजा ने कहा इस सबका प्रमाण क्या है? इस पर गोरिया ने कहा कि यदि उसकी बाणी सत्य है तो मेरी माता के स्तनों से दूध प्रकट होकर मेरे मुंह में गिरेगा। गोरिया की वाणी सत्य सिद्ध हो गयी । अश्रुपूरित नेत्रों से माता-पिता दोनों ने गोरिया को अपने हृदय से लगा लिया । तत्पश्चात सातों रानियों को दरबार में बुलाकर पूछताछ की गयी तो भयाक्रांत होकर उन्होंने सारी सच्चाई बता दी । वे सभी कालिंका के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करने लगी। कोधित होकर राजा ने उनको मृत्युदण्ड का निर्णय सुनाया । यह सुनकर बालक गोरिया ने कहा माताओं को मृत्युदण्ड देने का निर्णय न्यायसंगत नहीं है, इनको वन में भेजकर प्रायश्चित करने का अवसर मिलना चाहिए। राजा के आदेश पर सातों रानियां वन में जाकर तपस्या करने लगी। बालक की उदारता पर मॉ कालिंका का हृदय भर आया , उनकी अश्रुधार थामे नहीं थम रही थी। माता को समझाते हुए गोरिया ने कहा जिस कारण से भी आपने सारा कष्ट झेला, वही आपके सम्मान का कारण बनेगा । इतने में ही मॉ के अश्रु की एक धार सिल पर तो दूसरी धार बट्टे ( ल्वाड ) पर जा गिरी ।
पहली अश्रुधार से सिल तो हरुवा वीर के रूप में तथा दूसरी से बट्टा, कलुवा वीर के रूप में परिवर्तित होकर सामने प्रकट हो गये। तीन महापराक्रमी पुत्रों को एक साथ देखकर राजा झालरई और महारानी कालिंका की खुशियां सातवें आसमान पर उड़ान भरने लगी। बालक गोरिया की इस अलौकिक लीला को देख राजा- रानी दोनों समझ गये कि यह साधारण बालक नहीं अपितु ईश्वर का ही कोई अवतार है। राजा ने गोरिया का राजतिलक कर राज्य का राजा बना दिया और हरुवा वीर व कलुवा वीर दोनों भाइयों को दीवान नियुक्त किया।
शीघ्र ही राजा गोरिया की न्यायप्रिय एवं धर्म पारायण राजा के रूप में कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी और इनके नेक तथा देवतुल्य कार्यों को देखकर सारी प्रजा देवता के रूप में पूजने लगी। नेपाल से लेकर काली कुमाऊं यानी चम्पावत तक राजा गेरिया की दिव्य गाथाएं गायी जाने लगी।
उस काल में नागेश्वरनाथ काली कुमाऊं के राजा थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। कोई सन्तान न होने के कारण प्रजा के साथ उनका सन्तान की तरह व्यवहार रहता था। जनश्रुतियों के अनुसार एक बार उनके राज्यक्षेत्र में स्थित सिमाड़ सरोवर नाम के तालाब में एक महाभयानक मशान( दैत्य ) ने अपना बसेरा बना लिया । वह आस-पास क्षेत्रों में राहगीरों को सताने लगा । चारों ओर प्रजा त्राहिमाम करने लगी । वृद्धावस्था के कारण राजा नागेन्द्रनाथ उस मशान का सामना करने में असमर्थ थे। अपने सेनापति की सलाह पर राजा ने धौली- धूमाकोट के राजा गोरिया को सहायता के लिए संदेश भेजा । संदेश प्राप्त कर न्यायप्रिय, धर्मात्मा व सत्यवादी राजा गोरिया विचलित हो गये और अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर काली कुमाऊं की ओर प्रस्थान किया । यहाँ पहुंचकर राजा गोरिया ने उस भयानक मशाण को युद्ध के लिए ललकारा । मशाण युद्ध के लिए सामने आया, दोनों के मध्य भयानक युद्ध हुआ । अन्त में राजा गोरिया ने उस मशान को परास्त कर उसके आतंक का पटाक्षेप कर दिया । इस असम्भव कार्य को करने से प्रसन्न राजा नागेन्द्रनाथ ने राजा गोरिया को सम्मान व आभार के साथ अपने दरबार में बुलवाया । दरबार में पहुंचकर राजा ने न्यायकारी गोरिया से कहा कि आपने अपने पराक्रम से भयानक मशाण से इस राज्य को मुक्त कर प्रजा की रक्षा की है। राजा ने कहा कि उनकी कोई सन्तान न होने से हमारे राज्य को योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिल पा रहा है। वृद्धावस्था के कारण वह राजकाज चलाने में असमर्थ हैं। इसलिए हमारी तथा राज्य की समस्त प्रजा की इच्छा है कि आप इस राज्य की गद्दी संभाले । हम सभी आश्वस्त हैं कि आपके राज्य में जनता सुखी रहेगी। राजा व प्रजा के सामने खड़ी चुनौती को देख राजा गोरिया ने इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी और काली कुमाऊं के राजा के रूप में उनका राजतिलक हो गया। चम्पावत के गोरल चौड़ क्षेत्र में राजधानी होने के कारण यहाँ की प्रजा इनको न्यायकारी गोलू देवता के रूप में पूजने लगी ।इस तरह गोलू देवता अथवा गोलज्यू की अलौकिक लीलाओं का विस्तार यहीं से प्रारम्भ हुआ । इसीलिए इस भूमि को उनकी प्रथम लीला भूमि माना गया, यहीं से उनके राज्य का विस्तार भी उत्तर में सुदूर हिमालय तक, दक्षिण में रामपुर बरेली तक, पूर्व में नेपाल के धूमाकोट तक और पश्चिम में शेष कूर्मांचल क्षेत्र और तराई-भाबर तक फैला । उनकी राज्य सीमा अन्तर्गत आज भी महान्यायकारी, महाप्रतापी व महान धर्मात्मा राजा गोलू देवता के प्रति हर तरफ गहरी आस्था है। यहाँ के लोग गोलज्यू को अपने परम आराध्य देवता मानकर इनका पूजन , वन्दन करते हैं और दिव्य गाथाओं के रूप में श्रद्धापूर्वक महिमा गान करते हैं।
@ रमाकान्त पन्त
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