कर्णप्रयाग(चमोली)
अंगराज कर्ण की तपोभूमि कर्णप्रयाग का आध्यात्मिक महत्व सदियों से आस्था व भक्ति का संगम है। देवात्मा हिमालय के ऑचल में स्थित कर्णप्रयाग में अलकनन्दा व पिण्डर नदी कल- कल धुन में नृत्य करते हुए आपस में मिलकर एक होती है। इसी भूभाग में माँ उमा देवी का मन्दिर जगतमाता की ओर से अपने भक्तों के लिए अलौकिक भेट है। अलकनन्दा व पिण्डर के संगम पर दानवीर कर्ण का प्राचीन मन्दिर पाण्डवकाल की याद को दर्शाता है अलकनंदा एवं पिंडर नदी के पावन तट पर बसा कर्णप्रयाग पंच प्रयागों में एक है। श्री बद्रीनाथ व श्री केदारनाथ यात्रा पथ का यह सुन्दर पड़ाव सदियों से रहस्य व रोमांच का केन्द्र है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर कर्ण ने भगवान शिव एवं माता पार्वती के साथ-साथ भगवान सूर्य देव की तपस्या की कहते है, कि तपस्या के प्रभाव से दानवीर कर्ण को शिव एवं पार्वती के साथ-साथ भगवान सूर्य देव के दर्शन भी इसी स्थान पर हुए थे
कर्णप्रयाग क्षेंत्र के आसपास अनेकों दुर्लभ तीर्थ स्थलों की भरमार है गंगा के इन्हीं पावन तटों के क्षेत्रों में ऋषि- मुनियों ने तपस्या करके दुर्लभ सिद्धियों को प्राप्त किया पुराणों में भी इस भूमि का सुन्दर वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के केदारखण्ड के 81 वें अध्याय में यहाँ के तीर्थ.स्थलों का वर्णन करते हुए महर्षि वेद व्यास जी ने कहा है।यह तीर्थ शिवदायक है। यहाँ देवालय में जो रोगी, मूढ़, एवं दरिद्र व्यक्ति देवी की शरण में जाता है, उसकी सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्धि निश्चय ही होती है। यहाँ विश्व नामक शिवलिंग विराजमान है यह क्षेत्र अनेक तीर्थों और मुनिजनों से युक्त है। यहाँ लिंगरुपी विश्वेश्वर सदाशिव रहते हैं उनके दर्शन से कोटियज्ञों का फल प्राप्त होता है। यहाँ से उत्तर दिशा में गणकुण्ड है, जहाँ सौम्येश्वर शिव का दर्शन बड़ा ही फलदायी है ऐश्वर्यदायक रम्भाकुण्ड भी इन्हीं क्षेत्रों में है, जहाँ पूर्वकाल में रम्भा ने महादेव की आराधना की थी।यहाँ की पर्वत श्रृखंलाएं रावण की तपोभूमि भी रही है। प्रसन्न शिवजी से रावण ने वरदान मांगा था यह क्षेत्र पुण्यदायक हो, हे शिव! आप इसे न छोड़े, जो विशालात्मा इस क्षेत्र का सेवन करे, वह लोकों में धन्य हो तथा अपना परम कल्याण प्राप्त करे। तब से यह क्षेत्र महादेव का आश्रित (निवास स्थान) हो गया पुराणों में वर्णित है ,यहाँ स्नान करने से मनुष्य जो चाहता है, सब पा जाता है। और मरने पर उत्तम गति प्राप्त होती है। जो ‘यहाँ’ पितरों का तर्पण करता है, उसके पितर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। कर्णप्रयाग क्षेत्र के तीर्थ महात्म्य में कपिलक तीर्थ का भी वर्णन आता है।यह सभी तीर्थों में परम उत्तम है।
यहाँ सभी देवों से पूजित कपिलेश्वर महादेव रहते हैं इन्ही क्षेत्रों में ब्रह्मसर नामक तीर्थ है, जो सर्वत्र दुर्लभ है।
इस तीर्थ महात्मय के बारे में पुराणों में कहा गया है। पूर्वकाल में संयमी कर्ण ने यहॉ उमा देवी की तपस्या की थी, कैलास पर नन्दपर्वत के निकट गंगा और पिण्डार के संगम पर शिव के क्षेत्र में देवालय में महाराज कर्ण ने महादीक्षा ग्रहण की वहाँ तप करके महादेव (के मंत्र) को जपकर देवी भवन में वास किया, वामदेव, व्यासदेव, शुक पैल, वैशम्पायन, नारद, तुम्बुरु, भृगु, अश्वत्थामा, सुदेव, रन्तिदेव, महाहनु, कश्यप, आनन्द, गालव, उद्दालक, पर्णशन, महानाद, कुम्भधान्य, तपोनिधि |शुनः भरद्वाज, गौतम,सहित तमाम ऋषि मुनियों ने यहाँ कर्ण के यज्ञ में भाग लिया। तभी से वह क्षेत्र कर्णप्रयाग के नाम से स्मरण किया जाने लगा जिन- जिन मुनियों ने यहाँ आकर दानवीर कर्ण के यज्ञ में भाग लिया उन-उन (मुनियों) के नाम से यहाँ अनेक कुण्ड है। उनमें स्नान करने से मनुष्य सूर्यलोक में पूजित होता है यहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप फल देनेवाला सूर्यकुण्ड है। यही उमा नाम की महेश्वरी देवी है,जो देवी की अर्चना करता है, उसे उत्तम भोगों तथा अन्त में अपने पुर में वास करने का वर प्रदान करती हैं देवि! उमापति महादेव सकल यज्ञों के फल देने वाले हैं। इस स्थान पर महात्मा कर्ण ने शिव की आराधना की थी। यह शिव लिंग कर्णेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। यहाँ वैनायकी गणेश की परिक्रमा का विधान है। शिला का स्पर्श और परिक्रमा करने से विघ्नों का नाश होता है। यह उत्तम पुण्यतम और सर्वकामनादायक स्थान है। स्कंद पुराण में लिखा है यहाँ जिसका निधन होता है वह कल्पों तक शिवपुर में वास करता है। कर्णप्रयाग में जो मनुष्य एक उरद भर सोना वेद के विद्वान् ब्राह्मण को देता है, वह स्वर्णभागी होता है।इन्हीं क्षेत्रों में पाण्डवों ने भी शिवजी की आराधना की। जहाँ पाण्डेश्वर शिव है। इसी क्षेत्र में मेनका ने भक्तिपूर्वक शिवपूजन किया था। महादेव ने उसे बहुत बड़ा रूप वैभव दिया था।
कर्णप्रयाग की पर्वत श्रृंखलाओं में यलेश्वर महादेव,भीमेश्वर महादेव, देवेश्वर महादेव, स्वर्णेश्वर शिव इन्द्रेश, कालेश्वर ,आदि विराजमान है,इन्ही क्षेत्रों में हनुमान व भीमसेन का मिलन हुआ था। कुल मिलाकर कर्णप्रयाग तीर्थ का महत्व बड़ा ही अलौकिक है जिसे शब्दों में नहीं समेटा जा सकता है पुराणों ने इस तीर्थ को महा दुर्लभ तीर्थ कहा है कहा जाता है कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपनी हथेली पर यही किया
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