हल्दानी राजेन्द्रपन्त‘रमाकान्त’/ प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र मे उत्तराखण्ड को धनी राज्य माना जाता है। पानी, पर्यटन, जड़ी-बूटी के मामले में राज्य के पास काफी संभावनाएं विद्यमान तो हैं, लेकिन नीति नियामकों ने इन सबकी अनदेखी कर ज्वलंत समस्याओं के समाधान के लिए कारगर उपाय नही किये जिसके फलस्वरूप लोगों ने देवताओं की शरण लेनी शुरू कर दी है पर्यावरण की रक्षा के लिए वनों का सुरक्षित रहना नितांत आवश्यक है, वन सुरक्षित है तो हमस ब सुरक्षित है क्यौकि …………………जीवन का सारा खेल ही जंगलों (वनों) को लेकर है। जिस प्रकार एक-एक सांस को मोहताज मरीज के प्राण जैसे आक्सीजन सिलैन्डर पर टिके रहते हैं उसी तरह यह जीवन जंगल पर टिका है। लेकिन हमारी तेज होती व्यवसायिक सोच और मुनाफे की प्रवृत्ति ने हमें मानव से दानव बना डाला है। हवा-पानी में बदलाव के अलावा विलुप्त होती अनमोल वन सम्पदाएं और मौसम के बदलते तेवर हमारे शरीर की घटती कूवत बढ़ती बीमारियां, दम तोड़ती संवेदनाएं तथा संस्कृति व संस्कारों में आ रहा बदलाव इसी की परिणति है। यह हमारी खुशनसीबी है कि तमाम तरह के बदलावों के बावजूद प्रकृति से रिश्ता बनाये रखने वाले हमारे पारम्परिक रीत-रिवाजों के चलते ही प्रदेश में अब तक वनों का वजूद कायम है। खासतौर पर अपने उत्तराखण्ड जैसा प्रकृति की सहजता वाला समाज जहां आजीविका का बड़ा हिस्सा आज भी पानी, ईधन, चाय आदि वन उत्पादों के रूप में जुटता है, में प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और रखरखाव की अनेक परम्परागत विधियां अस्तित्व में हैं। इन्हीं में से एक अनूठी प्रथा वन क्षेत्र देवताओं को अर्पित कर देने की है। वनों के आस-पास बसे देश के विभिन्न भागों और यूरोप के पुराने चरवाहे समाजों में प्रचलित ‘सेक्रेट ग्रूब्स’ (पवित्र कुंज) से मिलती जुलती यह परम्परा विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से विख्यात है। देव वनों की इस प्रथा में वनों के अत्यधिक दोहन से उपजे संकट के प्रति ग्रामीणों का पश्चाताप और अन्य गावों के लोगों से अपने वन क्षेत्र को बचाने की चिन्ता का भाव दृष्टिगोचर होता है, जो वन क्षेत्रों के दोहन की भरपाई होने या कभी-कभी उससे भी लम्बे समय तक जारी रहता है।
देव वनों की इस अनूठी प्रथा में वन क्षेत्र ऐसे लोक देवता को अर्पित किया जाता है, लोकमानस मेें जिसकी छवि न्यायकारी और अन्याय करने वाले का अनिष्ट कर देने की होती है। कुमाऊं मण्डल के ज्यादातर क्षेत्रों में ऐसे वन लोकदेवी कोटगाड़ी और लोकदेव गंगानाथ तथा गोलज्यू को अर्पित किये गये हैं। इन तीनों लोक देवताओं की छवि अन्याय करने वाले को कड़ा दंड देने की है। यह बंधन इतना बाध्यकारी है कि कठोर कानून और वन विभाग का भारी लाव-लश्कर भी ग्रामीणों के मन में इतना डर पैदा नहीं कर पाता। एक बार अर्पित कर दिये जाने के बाद वन क्षेत्र में वह सभी गतिविधियां स्वतः बंद होती हैं, जिनका ग्रामीणों ने आपसी सहमति के आधार पर वन अर्पित करते समय निषेध कर दिया हो। जैसे वन क्षेत्रों में कुल्हाड़ी चलाना बंद हो जाए पर पालतू पशुओं की चराई खुली रहे या गिरी-पड़ी लकड़ी उठाने की मनाही न हो, पर वन्य जीवों का शिकार करना वर्जित हो। अनेक स्थानों पर ऐसे वन क्षेत्र में प्रवेश करने तक की मनाही होती है।
देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में प्रवेश करने के रास्तों और सीमा पर लाल, हरे, पीले चटक रंगों के कपड़े के झण्डे पेड़ों पर लगा दिये जाते हैं जो इस बात का प्रतीक है कि अर्पित कर दिये गये वन की सीमा शुरू हो चुकी है। आरक्षित तथा पंचायती वनों की अपेक्षा देव वन क्षेत्र के रखरखाव में कोई खर्च नहीं होता। देव वन की सुरक्षा के लिए चौकीदार की जरूरत नहीं होती। वन क्षेत्रों में लागू किये गये नियमों का उल्लंघन करने पर देवता के प्रकोप का खौफ ही चौकीदारी का कार्य करता है। आमतौर पर ऐसा वन क्षेत्र ही लोकदेवता को अर्पित किया जाता है। जो अत्यधिक दोहन के कारण रूग्ण हालत में पहुंच चुका हो और ग्रामीणों की आवश्यकताओं का दबाव वहन करने में सक्षम न रह गया हो। जब तक वन क्षेत्र में दोहन की भरपाई नहीं हो जाती तब तक किसी भी वन उत्पाद को लेने की मनाही होती है। पुराना स्वरूप वापस लौटने के बाद वन क्षेत्र को पुनः उपयोग के लिए खोल दिया जाता है।
देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप समाप्त हो जाने के कारण हरियाली और जैव विविधता की भरपाई अत्यंत तेजी से होती है, लेकिन सम्बंधित वन क्षेत्र पर निर्भर ग्रामीण आजीविका के वैकल्पिक उपाय चुनने को मजबूर हो जाते हैं। पिथौरागढ़ जिले की गंगोलीहाट तहसील में चिटगल, फरसिल, चौटियार, मणकनाली, कोठेरा, जाखनी, धौलेत व कनालीछीना का देवथल, जागेश्वर में पुलाई आदि गांवों में एक के बाद एक अनेक पंचायती व स्थानीय वन पिछले चार-पांच वर्षों के भीतर लोकदेवताओं को अर्पित कर दिये गये। इससे इन क्षेत्रों में भीतर में हरियाली तो लौट आयी पर ग्रामीणों की परम्परागत आजीविका का स्वरूप छिन्न-भिन्न हो गया। जिनके पास संसाधन हैं वे ईधन के स्थान पर गैस या स्टोव का प्रयोग कर रहे हैं। पशुपालन के स्थान पर अन्य व्यवसाय अपना चुके हैं या अपनी निजी भूमि पर चाय ईधन उगा रहे हैं, परन्तु जो साधनहीन हैं, चाय और ईधन के लिए जिनके पास निजी भूमि नहीं है उनके कष्टों का कोई निदान नहीं है। वे आरक्षित वन या अन्य गांवों के पंचायती वनों से चोरी-छिपे अपनी जरूरतें पूरी करते हैं। ऐसी स्थिति में अपना वन बचाने के लिए अन्य गांवों के लोग भी वन क्षेत्र, देवता को अर्पित कर देने को विवश हो रहे हैं। गंगोलीहाट क्षेत्र का अनुभव इसी निष्कर्ष की पुष्टि करता है।
मंदिरों के पास स्थित पेड़ों को न काटने की परम्परा देश के प्रत्येक स्थान पर रही है। शायद ही यही श्रद्धा देव वनों की प्रथा के जन्म का कारण बनी हो, परन्तु इतना निश्चित है कि इस परम्परा में अपने संसाधनों को दीर्घजीवी बनाये रखने की चेतना विद्यमान रही है। उत्तराखण्ड जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समाजों में कभी यह चेतना ग्रामीणों की सामूहिक भागीदारी वाली वन पंचायत व्यवस्था के रूप में तो कभी चमोली जिले के ‘रैणी’ गांव में अपने जंगल को ठेकेदार के हाथों से बचाने के लिए महिलाओं की मुहिम ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में अभिव्यक्त हुई है। दुर्भाग्य की बात यह है कि वन संसाधनों को चिरस्थायी बनाने के लिए वर्तमान में जो भी प्रयास हो रहे हैं उसमें ग्रामीणों को परम्परागत ज्ञान और संरक्षण की चेतना को स्थान नहीं दिया जाता रहा है। उल्टा ग्रामीणों के सदियों के अनुभव से अर्जित प्रथाओं-परम्पराओं पर सरकारी शिंकजा कसने की कोशिशें की जा रही हैं। नई वन पंचायत नियमावली के अध्यादेश ऐसी ही एक कोशिश है। वहीं विश्व बैंक के कर्जे से संचालित की गयी संयुक्त वन प्रबंध जैसी भारी भरकम योजनाएं आधुनिक प्रबन्धन के नाम पर ग्रामीणों को परम्परागत ज्ञान से विमुख कर रही हैं और प्रकृति से उनके परम्परागत रिश्ते को समाप्त कर रही है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि वन संरक्षण हेतु चलाये जाने वाले तमाम कार्यक्रमों में प्रबन्धन से लेकर संचालक तक का जिम्मा स्थानीय वन पंचायतों को सौंपा जाए इससे जहां वन संरक्षण की मुहिम में जनसहभागिता बढ़ेगी वहीं वन संरक्षण की मुहिम अपने अंजाम तक भी पहुंच पायेगी।
उत्तराखण्ड में वनों की अपार संभावनाएं हैं। यहां चीड़, सागौन, देवदार, शीशम, साल, बुरांश, सेमल, बांझ, साइप्रस, फर तथा स्प्रूश आदि वृक्षों से आच्छादित इस वन क्षेत्र से ईधन तथा चारे के अतिरिक्त इमारती तथा फर्नीचर के लिए लकड़ी, लीसा, कागज इत्यादि का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जा सकता है। इसके अलावा वनों में जड़ी-बूटियां काफी मात्रा में मौजूद हैं। जरूरत है इनके संवर्द्धन की। अगर राज्य सरकार जड़ी-बूटी की तरफ नीति में संशोधन करे तो राजस्व में अच्छी खासी वृद्धि हो सकती है।
आज विश्व बाजार में फूलों की बड़ी मांग है और उत्तराखण्ड में भी सरकार फूल उद्योग को बढ़ावा देने की बात तो कर रही है लेकिन धरातली क्षेत्र में कार्य संतोषजनक नहीं है। आश्चर्यजनक बात यह है कि क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी होने के बावजूद भी इस व्यवसाय से लोग अभी भी अनजान बने हुए हैं। क्षेत्र में आज के प्रचलन के महंगे फूलों में ग्लाइडोरस, रजनीगंधा, गुलाब, बेला, चमेली, डहेलिया, जरवेरा, आर्किड, गुलदाऊदी, गेंदा आदि का उत्पादन किया जा सकता है। गेंदा पर्वतीय क्षेत्रों में सर्वथा पाया जाता है।
बहरहाल राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिए ठोस नीति नहीं अपनाई जाती, तब तक राज्य में विकास की संभावनाएं नहीं बन पायेंगी।
वन देवियों के पूजन का महात्मय
उत्तराखण्ड की सौन्दर्यता अपने आप में अद्भुत व निराली है। इसकी नैसर्गिक सुन्दरता से आकृष्ट होकर महात्मा गांधी जी ने कहा – ‘‘यदि धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वह उत्तराखण्ड में ही है। इसकी अपार प्राकृतिक सुंदरता के कारण ही मनीषियों ने भारत-माता को शस्यश्यामला, सुजला, सुफला, मलयजलशीतलता आदि कहकर चित्रित किया। हरियाली के दर्शन हमें खेतों बागों और गांव के आंचल में ही दिखाई देते हैं। यही वह प्रदेश है जहां हरियाली का अखण्ड साम्राज्य है। यही प सभी प्रकार के पक्षी तथा वन पशु बेरोकटोक विचरते और निवास करते हैं। प्राचीन समय में त्रृषि-मुनियों ने इन्हीं वनों से आच्छादित घने वृक्षों के नीचे बैठकर परम-तत्व के साथ आत्मसात किया। वन हमारे बहुमूल्य धरोहर व सम्पदा हैं। ‘पदम पुराण’ में इस तरह से कहा गया है – ‘‘जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फूलता-फलता है जितने वर्षों तक वह वृक्ष फूलता-फलता है।’’ भगवान कृष्ण ने गीता में पीपल वृक्ष की महत्ता स्पष्ट की। पीपल और मुझमें किसी तरह का अंतर नही है। पीपल का वृक्ष मेरे ही समान सर्वशक्तिमान है। इसका स्पर्श करने मात्र से ही व्यक्ति को सभी दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। बुद्वि निर्मल हो जाती है। अज्ञानता की परत हट जाती है । महात्मा बुद्व ने तो यहां तक कहा- वृक्षों के अंदर जो करूणा का भाव है, वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। वृक्ष उस लकड़हारे को भी भरपूर छाया प्रदान करते हैं, जो उन्हें रात-दिन काटता रहता है। पुराणों में कहा गया है -सबसे बड़ी सम्पत्ति और ईश्वरीय वरदान के रूप में हमारे पास वृक्ष है। नीम का वृक्ष मां दुर्गा को सबसे अधिक प्रिय है। नीम के वृक्ष के सामीप्य मां दुर्गा का सानिध्य बना रहता है इसकी पत्तियों का प्रयोग करने से कई तरह की बीमारियां ठीक हो जाती हैं। यदि किसी बच्चे पर क्रूर ग्रह का प्रभाव है। पत्तियां को सोते समय तकिया के नीचे रखने से क्रूर ग्रह शांत हो जाते हैं। महात्मा बु( ने वट वृक्ष की छाया में बैठकर तपस्या कर ज्ञान की प्राप्ति की। वन हमारे बहुमूल्य धरोहर हैं ।
वनों में तरह-तहर की देवियां निवास करती हैं। जिन्हें हमारी लोक प्रचलित भाषा में ‘बन-देवी’ के नाम से जाना जाता है। जिनका स्मरण करने मात्र से ही सम्पूर्ण मनोकामना पूर्ण हो जाती है।
वन देवियों की उत्पत्ति किस तरह से हुई? इस संदर्भ में कई तरह की जनलोक कथाएं सुनने को मिलती हैं। कहा जाता है कि ‘त्रेता युग’ में रावण ने शिव भगवान से वर प्राप्ति के लिये कठोर तपस्या की। अपना सब कुछ शिव भगवान को अर्पित किया। शेष कुछ न रहने पर अन्ततः अपनी सुंदर अलौकिक दिव्य कन्याओं को भी शिव भगवान को समर्पित कर दिया। ये दिव्य कन्यायें ही ‘वन देवी’ के रूप में प्रकटित हुई। इन कन्याओं ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की अराधना की। शिव भगवान इनकी तपस्या से खुश होकर इन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये। कहा तुम जो चाहो वह दान मुझसे मांग सकते हो। मैं तुम्हारी निष्ठा व तपस्या से खुश हूं। इन देवियों ने कहा- हे प्रभु आप तीनों लोकों के स्वामी हैं, आपसे कोई भी बात अछूती नही है। हमने मनुष्य रूपी काया त्याग दी है। अब आपके पास ही आ गये हैं। आपको जो भी वर उचित प्रतीत होता है उसे आप हमें दें, हम उसे सहर्ष रूप से स्वीकार करेंगी, तब महादेव जी ने कहा कि तुम मृत्युलोक की विभिन्न दिशाओं में जाओं वहां किसी को किसी तरह से कष्ट मत देना। जन समुददाय में तुम्हारी पूजा वन देवियों के रूप में होगी।
दूसरी कथा इस तरह से है, दागुड़ा गांव में एक रावत परिवार रहता था। उसकी सात सुंदर अद्वितीय बहिनें थी, एक दिन ये घास लेने के लिये नदी पार अपने खेत में गये। सहसा भयंकर आंधी तूफान आने लगा। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगा। ये घबराने लगी। तभी एकाएक हुणियां नाम की दैवीय शक्ति इनके प्राणों को हर लेती है। ये अंछरी बन जाती हैं। इस प्रकार अंछरिया ही ‘बन देवी’ का पर्याय बन गयी। इन देवियों को सुन्दरता की प्रतिमूर्ति के रूप में जाना जाता है। मान्यता है कि हर कन्या को शादी से पहले और बाद में इन देवियों का पूजन करना अनिवार्य होता है। यदि संयोगवश या भूलवश इन देवियों की पूजा न की जाय तो ये सुन्दरता को कुरूपता में बदल देती हैं। जिसे ‘छाया’ के नाम से जाना जाता है। इन्हें सुंदर लाल रंग की व चमकीले रंग की वस्तुएं प्रिय लगती हैं। सुंदर स्त्री व पुरूष पर अपना प्रभाव जल्दी दिखाती हैं। इनकी पूजा न करने से दाम्पत्य जीवन कलुषित हो जाता है। परस्पर वैमनस्यता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जीवन में संकट के बादल आने शुरू हो जाते हैं। संतान प्राप्ति में भी बाधा आ जाती है, यश की जगह पर अपयश मिलना शुरू हो जाता है। भाद्रपद मास में इन देवियों की पूजा की जाती है। कुछ जगह इन्हें नचाया भी जाता है। ‘‘उत्तराखण्ड की लोकगाथा’’ नामक पुस्तक पृ.सं. 73 में जागर गीत के माध्यम से इस तरह से स्पष्ट किया गया है –
बैणा उदास नै रयै ह, बैणु ओसेह सागर ह।
हियै की हिमाल ह, बैणा गैलो पाताल ह,
न्यूंति कै बोल्यूँणा त्वीकैं बैणा पुजि के पठूँलोह।
तुकणि देऊलों बैणा तूल्या भनार ह।
तला को चोख्यूँण ह, जिबाड़ को लूण ह।
तुकैणी देऊँलो बैणा, पूषा का ऐत्वार ह,
सौणा का सोमार ह, असोजै सिरोइ ह,
कार्तिक का च्यूड़ा ह, भदो म्हैणै रितु ह,
तु उदासि नै हयै बैणा, हिमाचलै भाँझ हो,
तुमारै हिमाल हो, मासि फूल फुलिया छ।
तुमारे हिंवाल हो, लुड़छुड़ै बयाल हो,
तुमारै मुलक हो चुड़चुड़िया धाम ह,
तुमी पुतल्ये को बैणा, छमरांट पड़ी रौ हो,
त्वे मैता बोलूँलो, दगड़ी खेलेलू।
उदासी नै होयै, निरमाता की चेली।
बिन भायो की बैणा उदासी न होये।
घर में बैणोला उदासी नै हयै।
कुछ विद्वानों ने मण्डलस्थ देवताओं में षोड्स मातृकाऐं भी वन देवी के रूप में माना है। उनका मानना है कि ये देवियां कुमारी के स्वरूप में जानी जाती हैं। हर प्रकार के मांगलिक कार्यों में इन देवियों का समरण करने से सभी प्रकार की विघ्न बाधाएं दूर हो जाती हैं। कार्य सिद्धि एवं कल्याणक की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में षोड्श मातृकाओं के नामों को इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है-
गौरी पदमा शची मेधा सावित्री विजयी जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः।।
बिन्दुखत्ता हल्द्वानी कालाढूंगी आदि तमाम क्षेत्रों में वन देवियों के अनेकों मंदिर है जो परम श्रद्धा के साथ पूजित है
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