20 मई 2025 को 87 वर्ष की आयु में पुणे में महान वैज्ञानिक डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर का निधन हो गया। साहित्य जगत, उनकी विज्ञान कथाओं के लिए उन्हें सदा याद करेगा । उन्होंने हिंदी, मराठी और अंग्रेजी में 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें विज्ञान कथाएँ, आत्मकथा और शोधग्रंथ शामिल हैं। उनकी किताबों “वामन की वापसी” और “धूमकेतु” जैसी कृतियों ने युवाओं को विज्ञान के प्रति आकर्षित किया। दूरदर्शन पर प्रसारित “ब्रह्मांड” श्रृंखला के माध्यम से उन्होंने आम लोगों को खगोल विज्ञान के रहस्यों से परिचित कराया। 2014 में उनकी मराठी आत्मकथा “चार नगरातले माझे विश्व” को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला।
डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। उनके पिता, विष्णु वासुदेव नार्लीकर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में गणित के प्रोफेसर थे, जबकि माता सुमति नार्लीकर संस्कृत की विदुषी थीं। इस शैक्षिक पारिवारिक वातावरण ने बचपन से ही जयंत में वैज्ञानिक चेतना का बीजारोपण किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के सेंट्रल हिंदू बॉयज स्कूल में हुई । उन्होंने BHU से स्नातक किया। 1959 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित में डिग्री प्राप्त की और 1963 में खगोल भौतिकी में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. नार्लीकर ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति के “स्थिर अवस्था सिद्धांत” (Steady State Theory) को विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जो बिग बैंग सिद्धांत के विकल्प के रूप में प्रस्तुत हुआ। उन्होंने ब्रिटिश खगोलशास्त्री फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर “हॉयल-नार्लीकर सिद्धांत” प्रतिपादित किया, जो आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत और माक सिद्धांत का समन्वय था। यह सिद्धांत ब्रह्मांड के निरंतर विस्तार और नई पदार्थ निर्माण की प्रक्रिया पर आधारित था। अपने इस कार्य के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली, हालाँकि बाद में बिग बैंग सिद्धांत प्रमुखता पा गया, लेकिन नार्लीकर ने वैज्ञानिक बहस को नई दिशा दी।
भारत में अनुसंधान और संस्थान का निर्माण उनके ही निर्देशन में हुआ । 1972 में अमेरिका से भारत लौटकर उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में सैद्धांतिक खगोल भौतिकी समूह का नेतृत्व किया। 1988 में उन्होंने पुणे में इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) की स्थापना की, जो आज विश्वस्तरीय शोध केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है। 2003 में सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे IUCAA से एमेरिटस प्रोफेसर के रूप में जुड़े रहे।
डॉ. नार्लीकर को विज्ञान के क्षेत्र में कई पुरस्कार और सम्मान मिले।
उनके योगदान को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया।1965 में उन्हें
पद्म भूषण सम्मान दिया गया। महज 26 वर्ष की आयु में यह सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे युवा वैज्ञानिकों में से वे एक हैं। कलिंग पुरस्कार (1996) यूनेस्को द्वारा विज्ञान संचार के लिए उन्हें प्रदान किया गया । वर्ष 2004 में भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया।
महाराष्ट्र भूषण जो महाराष्ट्र का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है उनको वर्ष 2011 में दिया गया था।
डॉ. नार्लीकर न केवल एक खगोलशास्त्री थे, बल्कि विज्ञान के संवाहक, शिक्षक और लेखक भी थे। उन्होंने भारत को वैश्विक विज्ञान मानचित्र पर स्थापित किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने। *
(विवेक रंजन श्रीवास्तव )
(विभूति फीचर्स)*



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