दिन में तो सूर्य का प्रकाश होता था, पर रात में होता था निविड़ अंधेरा। रात में कभी कभी चंद्रमा का चढ़ता उतरता मद्घिम प्रकाश जरूर हो जाता था। आग की खोज की नहीं गई थी। जंगल में लगी आग की रोशनी से पता चला कि रात में भी उजाले में रहा जा सकता है। लकडिय़ां जलाकर प्रकाश करते वर्षों बीते। कुछ लोग पशुओं की चर्बी जलाकर उजाला करने लगे। सदियां बीत गई। सदियों बाद दिये पर बाती रखी गई, उसमें तेल डालकर जलाया गया और वह प्रकाश का संवाहक बना। लोग प्रार्थना करने लगे :-
”भो दीप त्वं ब्रह्म रूप अंधकार निवारक:।
इमां मया कृतां पूजां, गृहत्तेज प्रवर्धय।”
प्रकाश की तलाश समाप्त नहीं हुई। दिया, तेल बाती के अलावा, मोमबत्तियां, फिर खनिज तेल, खनिज तेल से जलने वाले लेम्प, और फिर गैस पेट्रोमेक्स। यह सफर बिजली की खोज के साथ ही मनुष्य समुदाय को एक चमत्कार की दुनिया में ले गया। इलेक्ट्रिक से प्रारंभ हो कर इलेक्ट्रानिक की दुनिया में पहुंच कर इसने सभ्यता और समाज में खलबली मचा दी। तेज नियॉन रोशनी, और रंग-बिरंगी झालरों में प्रकाश केे रंगों और प्रकारों का दिव्य दर्शन होने लगा। इन्द्रधनुष की बांहों से छिटक कर प्रकाश की भिन्न-भिन्न वर्तिकाएँ और किरणें अपनी छटा दिखाने लगीं।
आदमी ने आग या प्रकाश की खोज नहीं की, उसने आग और प्रकाश को समझने का प्रयास किया। यह प्रकाश विखंडित हो, ”एक्स रे” बनकर शरीर के भीतर तक पहुंच देह विद्या के प्रपंच को पढऩे वाला ”गूढग़ामी” किरण सिद्घ हुआ। अब तो मानव, किरणों के रेशों पर सवार हो गया।
प्रकाश और प्रकाश की संवेदना को आत्मसात करने वाले विद्युत प्रवाह के परिपथ बनने वाले ”कंडक्टर” तथा ”सुपर कंडक्टर” अर्थात संवाहक और ”अति संवाहक” की गतियों और स्थितियों का अध्ययन हो गया। ”पराबैंगनी” और ”इन्फ्रा रेड” जैसी किरणों के भीतर से ”लेसर” पुंज खोज निकाले गए तथा इनके विस्फोटों से जटिल समस्याओं का निदान होने लगा।
पृथ्वी और सागर की अतल गहराई, आसमान और नक्षत्रों की अरबों-खरबों मील की दूरियां, खगोल में गुम से हुए तारामंडलीय रहस्यों की परतें, परत दर परत खुलती गई। भू-गर्भ और सागरगर्भीय फासिल्स (जीवाष्म) की आयु निकाल कर आदमी अपना आदिम स्वरूप और आदिम सभ्यता का अध्ययन करने लगा। नक्षत्रों के गहरे रहस्यों को बेधता मनुष्य का अंतरिक्ष विमान अतल गहरे आकाश में मनुष्य की पारगामी क्षमता की परचम लहराने लगा।
दीप और प्रकाश, उससे उत्पन्न ऊर्जा, पता नहीं कब किस क्षण प्रोटान का विखंडन बन गयी। वहां से हिरोशिमा और नागासाकी उभर कर धुंआ-धुंआ होते रहे। लेसर किरणों से बमों की बरसात ने इराक और अफगानिस्तान को मलबों के ढेर में परिवर्तित कर अपनी मारक क्षमता को स्थापित किया। ”आर.डी.एक्स.” के रूप में आतंकवाद की भट्टियां गरमाई तथा यह साबित कर दिया कि आदमी की बनाई गगनचुंबी इमारतों को ताश के ढेर की तरह बिखेरा जा सकता है।
तुलसी के चौरे पर दीपक रख कर आंचल पसार प्रणाम कर रही ”देवी स्वरूपा” नारी की आंखों से ओंठों पर उतर रही प्रार्थना और आशीष के समन्वित लय को देखो। नदी की लहरों में हरे पत्तों के दोने पर, दीप रख, दीपदान करते हाथ और, धारा पर झिलमिलाते हजारों दीप। आसमान की ऊॅंचाइयों पर लटक रहे रंग-बिरंगे ”आकाश दीप”, पंच पल्लवों से सुसज्जित कलशों के ऊपर जल रहे ”साक्षी दीप”, मंदिरों की देव प्रतिमाओं के अखंड स्वरूप ”अखंड ज्योति”। अनुष्ठानों, दानों, सम्मानों को अभिभूत करने वाले आरती और पूजा के दीप।
ये दीप ही तो है जो हमारी मन की भावनाओं की अभिव्यक्तियां, हमारे संकल्पों के स्वरूप, मनोकामनाओं के कलश और शुभेच्छाओं के प्रकाशित स्तंभ बनते है।
ये दीप सिर्फ प्रकाश ही नहीं है। ये दीप सिर्फ दिया, तेल, बाती ही नहीं है। इनको जलाना ही आसान नहीं है, पर जलने के बाद उसे बनाए रखना भी दुष्कर है।
*”परम प्रकाश रूप दिन राती*
*नहिं कछु चहिअ दिया घृत बाती”*
जिसके जलने से :-
*”मोह दरिद्र निकट नहिं आवा।*
*लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥*
*प्रबल अविद्या तम मिट जाई।*
*हारहिं सकल सलभ समुदाई॥*
*खल कामादि निकट नहिं जाहीं।”* (राम चरित मानस)
मानस कथाकार ने रामभक्ति के दीप का वर्णन किया है। भीतर के इस प्रकाश से, इन्द्रिय जनित मनोरोगों का नाश होता है। रामभक्ति के शांतदीप के सामने ज्ञान दीप का प्रचंड प्रकाश असमर्थ और धराशायी होने वाला प्रकाश है। बड़ा कठिन है इसे जलाना :-
”तीन अवस्था तीन गुन
तेहि कपास ते काढ़ि
तूल तुरीय संवारि पुनी
बाती करै सुगाढ़ि”
इस बाती को –
”चित्त दिया भरि धरै दृढ़
समता दिअटि बनाई”
”एहि बिधि लेसै दीप,
तेज राशि विज्ञानभय
जातहिं जासु समीप
जरहिं मदादिक सलभ सब”
मद मोह आदि कीट पतंगे ऐसे विज्ञान मय तेज राशि, से जलने वाले दिए में जल कर खाक हो जाते हैं। आत्मा प्रकाश के सुख का अनुभव करती है। बुद्घि के प्रकाश से कुंठाएँ ढीली होकर नष्ट होती है। मान-सम्मान पाकर बुद्घि भ्रमित होने लगती हैं। इन्द्रियों के झरोखे खुल जाते हैं। विषय वासना की तेज बयार भीतर प्रवेश करती है।
*जब सो प्रभंजन उर गृह जाई,*
*तबहि दीप बिज्ञान बुझाई।*
ज्ञान का दीप ”विषय समीर बुद्घि कृत मोरी” होकर बुझ जाता है। मनुष्य फिर व्याकुल हो छटपटाने लगता है।
-”तमसो मा ज्योतिर्गमय”
-”तुम मेरे पीछे आओगे तो अंधेरे में नहीं चलोगे”
ये प्रकाश स्तंभ हैं, इनके पीछे चलने वाले अंधेरे में नहीं रहते। परंतु यह प्रकाश है क्या?
भीतर का प्रकाश और बाहर का प्रकाश, दोनों क्या अलग-अलग हैं?
आज दीपावली है। मिट्टी के दिये हैं। हजारों लाखों की संख्या में दीपमालिका सजी है। अंधेरे के साथ वह कुछ गा रही है।
”देते हैं, उजाले, मेरे सजदों की गवाही,
मैं छुप के अंधेरों में इबादत नहीं करता।”
कभी-कभी देखते हैं, वही दिया है, वही बाती है, लबालब तेल भरा है, हवा का झोंका आया और दिया बुझ गया। रह गई मलिन हुई बाती, आलोक कहीं चला गया।
”गत एव न ते निवर्तते
सखादीप इवानिलाहत:
अहमस्य दशेव पश्य माम्
विषह्यï व्यसन प्रधूमितान”
(कुमार सम्भव)
दीपावली का यह दिन, हर साल आता है। लोग दीप जलाते हैं और पूजा लक्ष्मी जी की करते हैं। आज का समय कई अर्थों में कंगाल है। अशिक्षा का पसरा हुआ अंधेरा लगातार गहराता जा रहा है। एक अरब की संख्या को पार करने के बाद आदमी ”मानव संसाधन” घोषित हो गया है। उपभोक्तावादी समाज के शब्द कोष में मनुष्य और उसके हाथों के श्रम को संसाधन के रूप में देखा जा रहा है।
”रात दीप धर हंस रही,
मोती झरते थाल।
जगमग रूप निहारता,
समय खड़ा कंगाल।”
इस वर्ष दीपावली, पिछली दीपावलियों से किन अर्थों में भिन्न होगी। शायद यह सोचने का विषय हो, पर लगता है कि गरीबी की ओर हमारे कदम कुछ और आगे चले जायेंगे। गरीबी और कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्यायें हमें झकझोर नहीं पा रही हैं।
किसानों को सबसिडी मिले या न मिले, यह तय करने का दायित्व विश्व बैंक और उसके नियंत्रकों की इच्छा पर निर्भर है। सूखे और बाढ़ की चपेट में किसी तरह उपजाई गई फसल की खरीदी दर क्या हो, यह सरकार ही तय करेगी। सरकारी दर पर समय में फसल न बिके तो किसान फसलों पर आग लगाकर आत्महत्यायें करेंगे।
जिस देश में लक्ष्मीनारायण की पूजा होती हो। जहां धनतेरस और दीपावली में सिर्फ लक्ष्मी की आराधना होती हो। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी देश में ”अन्नपूर्णा” का सेवक गांव का किसान भूखा और कंगाल होकर आत्महत्यायें करे।
लक्ष्मीजी के आगमन के स्वागत में बिजली के रंग बिरंगे झालर जल बुझ रहे हैं। दुकानों और उपहारों के ढेर के पीछे मैं खड़ा होकर अपनी खाली जेबें टटोलता हूं। बाजार ने हमें बेतहाशा खोखला और कंगाल कर दिया है।
ढेर सारे ऐसे भी चेहरे हैं जिन पर कर्ज में ली गई प्रसन्नता और किश्तों में खंडित मुस्कान हैं। आनेवाले बीस-तीस वर्षो का भविष्य किन्हीं वित्तीय संस्था के पास गिरवी रखकर ओढ़ी हुई उधार की सम्पन्नता की मस्ती में डूबे ये लोग, कर्ज का भार बढ़ जाता है तो सपरिवार आत्महत्या कर लेते हैं। उपभोक्तावादी समाज ने जीवन की उधार शैली विकसित की और लोग उसकी चकाचौंध में फंसे हुये हैं।
बाजार में सारी चीजें किश्त और उधार में उपलब्ध हैं।
चार्वाक के वंशज बड़े प्रसन्न हैं:-
”यावत् जिवेत् सुसुखं जिवेत्
ऋणं कृत्वा घृतंपिबेत्”
ऋण से सुख की तलाश के भ्रम बांटते रंगीन विज्ञापनों के बीच मन कुलांचे भर रहा है। दिये जल रहे हैं, पर उसके नीचे कर्ज का अंधेरा पसरा है। शायद दिये इसलिये उदास हैं – *”माटी का दीपक जले अंधकार के बीच।*
*किरणें दोनों हाथ से सपने रही उलीच।।”*
(डॉ. मनमोहन सिंह – विभूति फीचर्स)











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