सार्वजनिक मंचों पर चर्चित होने की चाहत व्यक्ति को कितना पथ भ्रष्ट कर सकती है। इसके अनेक उदाहरण नेताओं की बहकती ज़ुबान से मिलते हैं। पक्ष हो या विपक्ष, आजकल नेताओं की ज़ुबान बहुत फिसलने लगी है। सार्वजनिक मंचों से टिप्पणी करते हुए वे ये नहीं विचारते कि उनके मुँह से निकला कोई एक वाक्य भी किस प्रकार उनकी पार्टी की फ़ज़ीहत करा सकता है तथा सार्वजनिक रूप से उन्हें माफी माँगने के लिए विवश कर सकता है।
इतना ही नही जिन लोगों को विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधारा का विस्तार करने का दायित्व सौंपा गया है तथा जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए राजनीतिक दलों ने अपना अधिकृत प्रवक्ता नियुक्त किया है , वही अपनी भाषा और आचरण से पार्टी की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करने पर तुले हैं। वस्तुस्थिति यह है कि सिर्फ़ सार्वजनिक मंचों पर ही नहीं बल्कि ई मीडिया और सोशल मीडिया पर होने वाली बहस में विशेष राजनीतिक दल के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करते हुए प्रवक्ता गण अपशब्द बोलने एवं गाली गलौज करने पर आमादा हो जाते हैं। कई बार सार्वजनिक मंचों पर यही गाली गलौज मार पीट में भी बदल जाती है। लोकतंत्र का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा, कि सार्वजनिक मंचों पर नेता गण ऐसे शब्द बोलने में भी संकोच नही करते, जिन शब्दों को घर परिवार में बोलने से परहेज़ किया जाना अपेक्षित होता है। विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता का आचरण ही सभ्यता के दायरे लांघकर असभ्यता की परिधि में आता हो, तो अशोभनीय आचरण के चलते ऐसे लोगों को प्रवक्ता पद से अविलम्ब क्यों नही हटाया जाना चाहिए ?
(डॉ. सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स)



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