ऋषेश्वर महादेव : सप्त ऋषियों के परम् आराध्य देव

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चम्पावत के सप्तेश्वर महादेव मन्दिर श्रृंखला में ” ऋषेश्वर महादेव ” का सदियों से ही एक अलग धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व रहा है। माना जाता है कि सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याणार्थ सात ऋषियों ने कूर्म भूमि के इस पावन स्थल पर अपने आराध्य महादेव जी की घोर तपस्या की थी। प्रसन्न होने पर महादेव प्रकट हुए और ऋषियों की इच्छानुरूप इस रमणीक स्थल को अपने ऋषेश्वर स्वरूप अर्थात ऋषियों के ईश्वर के रूप में पूजन का विधान नियत किया। पौराणिक कथा के अनुसार महादेव ने ऋषियों से कहा कि जो भी श्रद्धालु भक्त लोक कल्याण के निर्मल भाव से इस पावन लोहावती नदी के मनोहारी तट पर ध्यान-साधना कर शुद्ध जल से मेरा अभिषेक करेगा, उसे समस्त देवी – देवताओं कृपा के साथ ही आप सभी महान ऋषियों के अक्षय तप का भी सम्पूर्ण फल सहज में ही प्राप्त हो जायेगा ।

तभी से यह अलौकिक स्थल ऋषेश्वर महादेव के रूप में शिव भक्तों द्वारा नित्य पूजित, वन्दित व सेवित है। इस पावन स्थल को ऋषेश्वर तीर्थ भी कहा जाता है।
चम्पावत – पिथौरागढ राजमार्ग पर चम्पावत से लगभग 13 किमी दूर स्थित लोहाघाट कस्बे में लोहावती नदी के तट पर सुशोभित यह पौराणिक ऋषेश्वर महादेव मन्दिर प्राचीन काल से ही संत-महात्माओं, ऋषि-महर्षियों, देवताओं व शिव भक्तों की तप स्थली के रूप में लोक प्रसिद्ध है। ऋषेश्वर महादेव के भक्तगण साधना के निमित्त यहाँ आते रहते हैं। महाशिवरात्रि, नवरात्रि, गुरु पूर्णिमा, श्रावण मास व माघ के महिने में यहाँ भक्तों व साधकों की भारी भीड़ देखी जा सकती है। कहा जाता है कि प्राचीन ऋषेश्वर महादेव मन्दिर में सप्त ऋषियों द्वारा प्रतिष्ठित रहस्यमयी शिव पिण्डी के दर्शन, पूजन व जलाभिषेक करने मात्र से ही श्रद्धालु लौकिक जगत के सभी तापों से मुक्त हो जाता है।

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मन्दिर के पास ही बेताल बाबा का एक पौराणिक मन्दिर निर्मित है और उसी से लगा हुआ है बेतालघाट नामक एक रहस्यमयी स्थान । लोहावती नदी पर स्थित बेतालघाट को लेकर अनेकानेक जनश्रुतियां व दन्त कथाएँ लोक जीवन में प्रचलित रही हैं। एक कथा के अनुसार बेताल पूर्व में एक मसाण योनि का अराजक गण था । श्राप के कारण हजारों वर्षों तक भूमण्डल में भटकता रहा । अन्ततः भगवान शिव की कृपा से उस बेताल ने शिव- साधना आरम्भ कर दी, और शिव की कृपा से ऋषेश्वर के समीप ही बाबा बेताल के रूप में उसे नदी तट पर सम्मानजनक स्थान प्राप्त हुआ। तभी से ऋषेश्वर पूजन के पश्चात महा बलशाली गण बाबा बेताल की पूजा करने का विधान भी नियत किया गया ।

मान्यता है कि रामायण काल व महाभारत काल से ही ऋषि-मुनियों की यह तपःस्थली कभी कैलाश मानसरोवर यात्रा पथ का प्रथम पड़ाव थी। कैलाश मानसरोवर तीर्थ यात्री यहाँ लोहावती नदी में स्नान करके ऋषेश्वर महादेव के दर्शन-पूजन के बाद ही आगे की यात्रा पर निकलते थे।
मानसखण्ड के एक पौराणिक प्रशंग के अनुसार मान्यता है कि जो मनुष्य एक बार इस पावन मंदिर के दर्शन कर लेता है, वह अश्वमेघ यज्ञ के समान फल का भागी बनता है । महाबली भीम ने भी यहां पहुंच कर ऋषेश्वर महादेव की घोर तपस्या की और महादेव की प्रेरणा से ही ब्रहमाण्ड नायिका माता अखिलतारिणी की कृपा प्राप्त की ।

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स्कंद पुराण के मानस खण्ड में वर्णन मिलता है कि ऋषि पुलस्त्य के पुत्र व लंकापति रावण के लघु भ्राता कुंभकर्ण ने बाल्यकाल से ही भगवान शिव की घोर आराधना के पश्चात अनेक वर प्राप्त किये। जिनमें से एक वर यह था कि मृत्यु के समय उसका सिर लंका में न गिरकर ऐसे पवित्र स्थान पर गिरे जहां साक्षात शिव का वास हो तथा वह स्थान जलमग्न हो। चिरकाल के बाद दशरथ पुत्र भगवान रामचन्द्र जी ने जब सुग्रीव की सहायता से लंका पहुंच कर उसका सिरोभेदन कर दिया तब भगवान शिव द्वारा कुम्भकर्ण को दिये वरदान का स्मरण कर रामचन्द्र जी ने वानरश्रेष्ठ हनुमान से कुंभकर्ण के सिर को कुर्मांचल की भूमि पर ले जाने को कहा। इस भूमि पर सिर पड़ते ही वह परम गति को प्राप्त हुआ और यह स्थान सरोवर में परिवर्तित हो गया। बाद में भगवान ऋषेश्वर की कृपा व माता अखिलतारिणी से वरदान प्राप्त करने के पश्चात भीम ने इसके टुकड़े-टुकड़े कर इसे अपने पुत्र घटोत्कच को समर्पित कर चम्पावत में एक मन्दिर बनाया, जो आज घटोत्कच मन्दिर के नाम से विख्यात है।

ऋषेश्वर की इसी पावन भूमि पर महर्षि वशिष्ठ समेत सात ऋषियों ने भगवान शिव की लंबे समय तक तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने ऋषेश्वर स्वरूप यहाँ वास करने की बात कही। तब से यह स्थान ऋषि तीर्थ अथव ऋषेश्वर तीर्थ भी कहा जाता है। मन्दिर में भगवान शिव की पूजा का दायित्व समीपवर्ती बारह गांव के ब्राह्मणों को सौपा गया है। बताते हैं कि वर्षों पहले तक दो – चार परिवार ही सेवा देते थे, परन्तु समय के साथ परिवारो का विस्तार और गांवों की संख्या भी बढ़ती चली गयी । वर्तमान में पूजा कर्म हेतु यहाँ उन परिवारो की बारी लगती है।

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यह स्थान चारों ओर से घने देवदार के वृक्षो से आच्छादि है। पूर्व में यहाँ ऋषेश्वर के छोटे मन्दिर में चमत्कारिक शिव पिण्डी, बाबा बेताल और भैरव पूजा का ही विधान था, परन्तु अब यहाँ अनेक देवी-देवताओं के मन्दिर निर्मित किये जा चुके हैं। मन्दिर सौन्दर्यीकरण के बाद सत निवास, यात्री विश्राम गृह, यज्ञ शाला आदि बनाये गये हैं। की मन्दिर के मुख्य पुजारी के अनुसार वर्ष 1960 के लगभग 108 श्री बालक बाबा जी ने इस मंदिर से नदी पर उतरने के लिए सीढ़ियां बनवाई। इसके बाद सन् 1970 में श्री श्री 108 बाबा हीरानंद ने भक्तजनों का सहयोग लेकर धर्मशाला का निर्माण करवाया। उन्हीं की प्रेरणा से वर्तमान में यहां पर श्रीराम मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, काली मंदिर, हनुमान मंदिर, देवी मंदिर, गणेश मंदिर, भैरव मंदिर एवं बेताल बाबा मन्दिर स्थापित हैं। वर्ष भर इस मंदिर में श्रद्धालुओं की आवा- जाही लगातार बनी रहती है। उत्सव, पर्व, संक्रान्ति, शिवरात्रि व नवरात्रियो में अनेक बड़े धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होते हैं और विशाल भण्डारे भी आयोजित किये जाते हैं।

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