शारदा सिन्हा जिनकी आवाज़ में खनक और मिठास का अद्भुत संगम था

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विख्यात गायिका शारदा सिन्हा जी का अवसान दुखद है । वे ज्यादातर छठ मैया के गीतों के लिए जानी गईं,उन्होंने ही छठ के त्यौहार को बिहार से निकालकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई और संयोग यह कि उनका देहांत भी छठ मैया की गोद में ही हुआ, यह उनकी छठ मैया के प्रति भक्ति कहें या उन पर छठ मैया की पूर्ण कृपा कहें तभी ऐसा संयोग हुआ कि छठ मैया की गायिका छठ मैया की शरण में ही गईं। शारदा सिन्हा जी और छठ मैया एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं,यदि उन्हें छठ मैया की आवाज कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि आज दुनिया में छठ मैया की पूजा जब भी जहां भी होती हैं वहां शारदा जी की आवाज जरूर होती है फिर चाहे घर हो या घाट। शारदा जी आला दर्जे की गायिका थीं इसलिए उन्हें “बिहार की लता मंगेशकर” भी माना गया और कई लोगों ने उनको “मिथिला की बेगम अख्तर” भी कहा लेकिन मुझे लगता है कि यह शारदा जी के साथ अन्याय है क्योंकि शारदा जी देश की सभी गायिकाओं से बहुत ऊपर थीं,बेशक लता जी महान गायिका थीं लेकिन शारदा जी की श्रेष्ठता यह थी कि वे किसी संगीतकार या म्यूजिक कंपोजर की मोहताज नहीं थीं। शारदा जी खुद कंपोज करती थीं,लिखती भी थीं जबकि बॉलीवुड की गायिकाएं तभी गाती हैं जब उन्हें कोई गाना कंपोज करके दिया जाए इसलिए शारदा जी की तुलना बॉलीवुड गायिकाओं से नहीं होना चाहिए।हालांकि शारदा जी ने खुद भी फिल्मी गाने गाए हैं लेकिन इसके बावजूद उनकी असली ताकत मंच ही रहा है । वे स्वयं ही मंच पर ऐसा रोमांच पैदा करती थीं कि दो ढाई घंटे के लिए श्रोता बंध से जाते थे। वे मंच पर डांस का सहारा नहीं लेती थीं और न ही किसी तरह की लोक लुभावन अदाओं के दम पर शो करती थीं बल्कि शांति से बैठकर गाती थीं और फिर अपनी आवाज़ से ही जादू करती थीं । उनकी आवाज़ में खनक और मिठास का अद्भुत संगम था जो हजारों की भीड़ को बांध लेता था। उनका गाना शुरू होते ही लोग चहलकदमी बंद कर देते थे। मंच पर उनको देखते हुए भी हम सुन सकते थे और आंख बंद करके भी उनको सुना जा सकता था,हमेशा सुखद अनुभूति होती थी। शारदा जी की गायन प्रतिभा के बारे में हम क्या कहें वो खुद ही शारदा थीं जैसा नाम वैसा काम। शुरू में वे शास्त्रीय गायिका रही हैं इसीलिए उनकी गायकी में दम था बल्कि उनकी गायिकी और आवाज इतनी दमदार थी कि बिना किसी सहायक इंस्ट्रूमेंट के भी वे गाने में रोमांच पैदा कर सकती थीं। गैंग्स ऑफ वासेपुर का गाना “तार बिजली के” ऐसा ही है जिसमें ढोलक के अलावा कोई इंस्ट्रूमेंट नहीं है और उस गाने की रिकॉर्डिंग भी सेट की ही लगती है एकदम ओरिजनल । यह गाना स्टूडियो में रिकॉर्ड नहीं किया गया फिर भी उस गाने में कोई झोल या डलनेस आपको दिखाई सुनाई नहीं देगी यह थी शारदा जी की ताकत। मंच पर भी उनके साथ अन्य गायकों की तरह बहुत बड़ी आर्केस्ट्रा नहीं होती थी, हारमोनियम, ढोलक और एक दो लोक वाद्य के साथ ही वे बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति दे देती थीं। जिस तरह लता जी का सम्मान फिल्म जगत, सुगम संगीत और शास्त्रीय संगीत जगत अर्थात संगीत के हर वर्ग में होता था उसी तरह शारदा जी का सम्मान भी संगीत के सभी वर्ग में था। शारदा जी की शुरुआत लोक गायन से हुई बाद में उनकी पहचान बॉलीवुड सिंगर के रूप में भी होने लगी लेकिन इसके बाद भी शास्त्रीय संगीत जगत में भी उनको बराबर सम्मान मिलता रहा। यही कारण है कि भोपाल के भारत भवन में उनकी प्रस्तुति हुई। मैंने भी पहली बार उनको भारत भवन में ही सुना था और मैंने प्यार किया के गाने की फरमाइश भी की थी,हालांकि फरमाइश करना भारत भावन के प्रोटोकॉल के विरुद्ध है लेकिन मेरी फरमाइश के बाद ही ऑडियंस की तालियों ने भी मेरा समर्थन किया तो बात बन गई और फिर शारदा जी ने सुनाया “कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनिया” फिर सारी ऑडियंस खो गई मैने प्यार किया के उनके गीत में, क्यूंकि उनका गाना बिल्कुल वैसा ही था जैसा फिल्म में सुनाई देता है। मंच पर शारदा जी का व्यवहार भी बहुत अच्छा होता था कोई एटीट्यूट नहीं,एकदम सिंपल और शालीन, शायद इसीलिए वे महान गायिका थीं,शारदा की सच्ची साधिका शारदा सिन्हा,छठ मैया की सुपुत्री और छठ मैया की आवाज़ जो खुलती भी है तो छठ पूजा के लिए और खामोश भी हुई तो छठ पूजा के ही दिन लेकिन यह खामोशी कुछ पल की है,क्योंकि जब जब भी छठ मैया आयेंगी तो अपनी आवाज के साथ ही आएंगी तब हर ओर फिर सुनाई देगा “केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल”…विनम्र श्रद्धांजलि सादर नमन।( लेखक गीतकार हैं।)

(मुकेश कबीर -विभूति फीचर्स)

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