धरती आबा, महानायक और भगवान, बिरसा मुंडा को ये तीनों नाम यूं ही नहीं मिले। अंतिम सांस तक अंग्रेजों से अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले और प्रकृति को भगवान की तरह पूजने वाले बिरसा मुंडा की आज जयंती है। देश में आज इनकी जयंती को जनजाति गौरव दिवस के तौर पर मनाया जा रहा है। मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में इन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है।
धरती आबा बिरसा मुंडा का ‘उलगुलान’भूमि से लेकर धर्म सम्बन्धी तमाम समस्याओं के खिलाफ जनसंघर्ष था तथा उन समस्याओं के खिलाफ राजनीतिक समाधान का प्रयास भी। वह आदिवासी और खासकर मुंडा समाज की आंतरिक बुराईयों और कमजोरियों को दूर करने का सामूहिक अभियान भी था। समाज की परंपरागत प्रकृति निर्भर तत्व ने आर्थिक समाजवाद की अवधारणा को बिरसा के अंदर जागृत किया । गांधी से पहले गांधी की अवधारणा के तत्व के उभार के पीछे भी बिरसा का समाज एवं पड़ोस के सूक्ष्म अवलोकन एवं उसे नयी अतंर्दृष्टि देने का तत्व ही था। तभी तो उन्होंने गांधी के समान समस्याओं को देखा-सुना, फिर चिंतन-मनन किया। उन्होंने मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का जो प्रयास किया, वह अंग्रेजी हुकूमत के लिये विकराल चुनौती बनी। नये बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगों को नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता, आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था। समस्या के कारणों को ढूढ़ ‘गोरों वापस जाओ’ का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया, ताकि शोषणमुक्त ‘ आदिम साम्यवाद ’ की स्थापना हो सके।
1894 में बिरसा मुंडा ने एक ऐसे धर्म की शुरुआत की जो पूरी तरह से प्रकृति को समर्पित था। बिरसाइत धर्म में गुरुवार के दिन फूल, पत्तियां और दातून को तोड़ने पर भी मनाही थी।इस दिन हल चलाने की भी पाबंदी थी। इस धर्म को मानने वालों का एक ही लक्ष्य था, प्रकृति की पूजा। इस धर्म के प्रसार के लिए बिरसा मुंडा ने 12 शिष्यों को नियुक्त किया। इस धर्म को मानने वालेे लोग मांस, मदिरा, तम्बाकू और बीड़ी का सेवन भी नहीं कर सकते।
1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के शांत होने के बाद सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरू हो गया। 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित यह आंदोलन 1890 में राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया, जब बिरसा मुंडा ने इसकी कमान संभाली। बिरसा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को खूंटी जिले के अड़की प्रखंड के उलिहातु गांव में हुआ था। व्यक्तित्व निर्माण और तालीम ईसाई मिशनरियों के संरक्षण में हुई। स्कूली शिक्षा के दौरान बिरसा में विद्रोह के लक्षण प्रकट होने लगे। आदिवासियों में भूतकेता पहनाई आदि की परंपरा है। वे धार्मिक कृत्यों के लिये जमीन छोड़ते हैं। उस समय ईसाई पादरी उस जमीन पर मिशन का कब्जा करने की कोशिश करते थे। बिरसा ने इसकी शिनाख्त ईसाई मिशनरियों और गोरों की साजिशों के रूप में की और इसकी बेबाक ढंग से आलोचना की, जिस कारण वे स्कूल से निकाल दिये गये। इसके बाद वे सरदार आंदोलन में शमिल हो गये। ईसाई मिशन की सदस्यता छोड़ 1890-91 से करीब पांच साल तक वैष्णव संत आनंद पांड से हिन्दुओं के वैष्णव पंथ के आचार का ज्ञान प्राप्त किया और व्यक्तिक तथा सामाजिक जीवन पर धर्म के प्रभाव का मनन किया। परंपरागत धर्म की ओर उनकी वापसी हुई और उन्होंने धर्मोपदेश देना तथा धर्माचरण का पाठ पढ़ाना शुरू किया । ईसाई धर्म छोड़नेवाले सरदार बिरसा के अनुयायी बनने लगे। बिरसा का पंथ मुंडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना । उनका धार्मिक अभियान प्रकारांतर से आदिवासियों को अंग्रेजी हुकूमत और ईसाई मिशनरियों के विरोध में संगठित होकर आवाज बुलंद करने को प्रेरित करने लगा। उस दौर में उनकी लोकप्रियता इस कदर परवान चढ़ी कि उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे। उन्होंने सादा जीवन उच्च विचार अपनाने का उपदेश दिया और मुंडा समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया । वह जनेउ, खड़ाऊ और हल्दी रंग की धोती पहनने लगे। उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है और वह है सिंगवोंगा। भूत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है।सार्थक जीवन के लिये सामिष भोजन अथवा मांस-मछली का त्याग करना जरूरी है। हड़िया पीना बंद करना होगा।भगवान बिरसा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्मसुधार और एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आग्रह किया था। 1894 में अकाल के दौरान भगवान बिरसा ने वनवासियों के लगान माफी के लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने नारा दिया “अबुआ राज सतेरे जना, महारानी राज तुण्डु जना”।
बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नई जान आ गयी। अगस्त 1895 में वन सम्बन्धी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व बिरसा ने किया। धार्मिक आधारों पर एकजुट बिरसाइतो का संगठन जुझारू सेना की तरह मैदान में उतर गया। बकाये की माफी के लिये उन्होंने चाईवासा तक की यात्रा की तथा रैयतों को एकजुट किया। अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा की मांग को ठुकरा दिया। बिरसा ने भी ऐलान कर दिया कि -‘ सरकार खत्म हो गयी। अब जंगल जमीन पर आदिवासियों का राज होगा। 9 अगस्त 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हे छुड़ा लिया।16 अगस्त 1895 को गिरफतार करने की योजना के साथ आये पुलिस बल को बिरसा के नेतृत्व में सुनियोजित ढ़ंग से घेरकर खदेड़ दिया। इससे बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने 24 अगस्त 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस बल चलकद रवाना किया तथा रात के अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने के लिये उकसा रहे थे। मुंडा और कोल समाज ने बिरसाइतों के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। व्यापक विरोध के कारण मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदलकर खुंटी कर दिया गया, लेकिन विरोध के तेवर में फर्क नहीं पड़ने के कारण मुकदमें की कार्रवाई रोककर तुरंत जेल भेज दिया गया। भा़दवि की धारा 505 के तहत मुकदमा चला तथा उन्हें दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी। उन्हें रांची से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 1897 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा तथा चेचक की महामारी भी फैली। आदिवासी समाज बिरसा के नेतृत्व के अभाव में भी दमन-शोषण, अकाल तथा महामारी से एकसाथ जूझता रहा। 30 नवम्बर 1897 को बिरसा जेल से छूटे तथा चलकद लौटकर अकाल तथा महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा में जुट गये। उनका यह कदम अपने अनुयायियों को संगठित करने का आधार बना। फरवरी 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की सभा में उन्होंने आंदोलन की नई नीति की घोषणा की तथा खोये राज्य की वापसी के लिये धर्म तथा शांति का मार्ग अपनाने का आह्वान किया। उनके अभियान के तहत सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्ष को केन्द्र में रखकर आदिवासी समाज को मजबूत तथा संगठित करने का सिलसिला जारी रहा। 1889 के अंत में यह अभियान रंग लाया और अधिकार हासिल करने, खोये राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने तथा जंगल के अधिकार को वापस लेने के लिये व्यापक गोलबंदी शुरू हुई। कोलेबिरा, बानो लोहरदग्गा, तोरपा, कर्रा, बसिया, खूंटी, मुरहु, बुंडु, तमाड़, पोड़ाहाट, सोनाहातु आदि स्थानों पर बैठक हुई।24 दिसम्बर 1899 को रांची के तोरपा, खूंटी, तमाड़ बसिया, आदि से लेकर सिंहभूम जिला के चक्रधरपुर थाने तक में विद्रोह की आग भड़क उठी विद्रोह के दमन के लिये सिहभूम से रांची तक 500 बर्गमील क्षेत्र में सेना और पुलिस की कम्पनी बुलाकर बिरसा की गिरफ्तारी का अभियान तेज किया गया। सरदारों पर हमला करने और आंदोलन का साथ देनेवालों मुंडा- मानकियों को गिरफ्तार करने व आत्मसमर्पण न करनेवाले विद्रोहियों की घर -सम्पत्ति कुर्क करने की योजना को अमलीजामा पहनाया जाने लगा। सरकार ने बिरसा की सूचना देने वालों और गिरफ्तारी में मदद देने वाले मुंडा या मानकी को पांच सौ रुपए पुरस्कार देने का ऐलान किया। बावजूद इसके सरकार बिरसा को गिरफ्तार नहीं कर पायी। बिरसा ने आंदोलन की रणनीति बदली, साठ स्थानों पर संगठन के केन्द्र बने। डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडाओं की बैठक में‘उलगुलान ’ का ऐलान किया गया। बिरसा के इस आंदोलन की तुलना आजादी के आंदोलन में बहुत बाद 1942 के अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है। 1942 में महात्मा गांधी ने ‘ करो या मरो’ का नारा दिया था।
बिरसा के नेतृत्व में अफसरों, पुलिस, अंग्रेज सरकार के संरक्षण में पलनेवाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया गया। खूंटी, तोरपा, बसिया, तमाड़, सर्बादा, मुरहू, चक्रणरपुर, पोड़ाहाट रांची और सिंहभूम में गोरिल्ला युद्ध ने हुकूमत की चूलें हिला दी। आंदोलन को कुचलने के लिये रांची और सिंहभूम को सेना के हवाले कर दिया गया। 8 जनवरी 1900 को डोम्बारी पहाड़ियों पर जमे बिरसाइत के जत्थे पर सेना ने आक्रमण कर दिया तथा युद्ध के दौरान लगभग 200 मुंडा मारे गये। सैलरकब पहाड़ी पर भी संघर्ष हुआ। इसके बाद भी बिरसा पकड़ में नहीं आये। आंदोलन की रणनीति के तहत अपने आंदोलन के केन्द्र बदले तथा घने जंगलों में संचालन के केन्द्र बनाये गये। जमकोपाई तथा पोड़ाहाट के जंगलों संगठन तथा प्रशिक्षण के कैंप बनाये गये। 3 फरवरी 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिबिर से बिरसा को उस समय गिरफ्तार किया गया, जब वे गहरी नींद मे सोये हुए थे। पुलिस के भारी बंदोबस्त के साथ उन्हें तत्काल खूटी के रास्ते रांची कारागार लाकर बंद कर दिया गया। बिरसा के साथ अन्य 482 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ 15 आरोप दर्ज किये गये। शेष अन्य गिरफ्तार लोगों में सिर्फ 98 के खिलाफ आरोप सिद्ध हो पाया। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गयी। गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी। मुकदमें की सुनवाई के शुरूआती दौर में उन्होंने जेल में भोजन करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। अदालत में तबियत खराब होने की वजह से जेल वापस भेज दिया गया। 1 जून को जेल अस्पताल के चिकित्सक ने सूचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। 9 जून 1900 की सुबह सूचना दी गयी कि बिरसा नहीं रहे । इस तरह एक क्रांतिकारी जीवन का अंत हो गया। सन् 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे। 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए महासंग्राम था।
अबुआ दिशुम अबुआ राज यानी हमारा देश हमारा राज्य का नारा देने वाले लोकनायक जिन्होंने आदिवासिओं के सम्मान ,स्वाभिमान ,स्वतंत्रता और सबसे मुख्य उनकी संस्कृति को बचाने के लिए आत्मसमर्पण और बलिदान दिया जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। भगवान बिरसा मुंडा ने महज़ 25 साल का जीवन जिया परन्तु इस छोटे से सफर में पूरे साहस और शौर्य का प्रदर्शन कर वह हमेशा के लिए अमर हो गए वास्तव में बिरसा मुंडा देशभक्ति एवं वीरता का प्रतीक थे। उन्होंने केवल आदिवासियों के लिए ही नहीं परन्तु उनके साथ-साथ इस देश की अखंडता, इसकी गौरवशाली संस्कृति और जनजातीय परंपरा के संरक्षण के लिए स्वयं को न्यौछावर कर दिया। अन्याय और उत्पीड़न से लड़ने के वीरतापूर्ण प्रयासों से भरी उनकी जीवन कहानी उपनिवेशवाद के खिलाफ प्रतिरोध की एक मजबूत आवाज का प्रतिनिधित्व करती है।
बिरसा के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बना। जल , जंगल और जमीन पर पारंपरिक अधिकार की रक्षा के लिये शुरू हुए आंदोलन एक के बाद एक श्रृंखला में गतिमान रहा तथा इसकी परिणति अलग झारखंड राज्य के रूप में हुई, लेकिन अबुआ दिशुम का सपना साकार नहीं हो सका। आजादी के बाद औद्योगिकीकरण के दौर ने उस सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया जिसकी स्थापना के लिये बिरसा का उलगुलान था। खनिज सम्पदा के दोहन और घोटाले ने प्रदेश को शर्मसार किया है।
बिरसा के द्वारा स्थापित बिरसाइत पंथ आज भी कायम है।खूंटी जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर जंगल के बीच बिरसाइतों का गांव है अनिगड़ा। बिरसाइत सम्प्रदाय से जुड़े लोग मांस मछली नहीं खाते हैं, तुलसी की पूजा करते हैं। पहनने में सूती वस्त्र का इस्तेमाल करते हैं तथा नशे से दूर रहते है। हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन करते है। अनगड़ा में ही उदय मुंडा को फांसी दी गयीं। उनका परपौत्र मंगरा मुंडा आज भी जिंदा है। उनके मुताबिक कभी इस गांव में बिरसाइतों की संख्या 50 थी। अब ये नाममात्र के रह गये हैं। ये अपनी गरीबी और मुश्किलों से नाराज नहीं है, पर सरकारी उपेक्षा से ज्यादा दुखी है। मंगरा मुंडा के मुताबिक यदि अंग्रेजों ने शोषण किया तो आजाद भारत की सरकार ने भी कम धोखा नहीं दिया। आजादी के बाद भी लगान- सूद से मुंडाओं को मुक्ति नहीं मिली। जल,जंगल,जमीन पर अधिकार नहीं मिला। अबुआ दिशुम का सपना पूरा नहीं हुआ। आज राज्य गठन के 24 वर्ष होने के बाद भी अबुआ दिशुम-अबुआ राईज मात्र नारा बनकर रह गया। सीएनटी-एसपीटी एक्ट और संविधान प्रदत्त पांचवीं अनुसूची, पेसा कानून, वनाधिकार कानून तथा न्यायिक निर्णय समता जजमेंट आदि मुद्दों पर राज्य गठन होने के बाद जो सार्थक प्रयास केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा होना चाहिए, वो अब तक दिखाई नहीं दे रहा है। हालांकि 10 नवंबर 2021 को केंद्र सरकार ने इनकी जयंती के दिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। बिरसा मुंडा के नाम पर केंद्र सरकार और कई राज्यों की सरकारी योजना चला रही है।
(कुमार कृष्णन-विभूति फीचर्स)
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