आदिनाथ जन्मकल्याणक :22 मार्च 2025 :सभ्यता और संस्कृति के संस्थापक भगवान आदिनाथ

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जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ, जिन्हें ऋषभनाथ, ऋषभदेव या आदिनाथ के नाम से जाना जाता है, उन्होंने न केवल आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि मानव सभ्यता को एक सुसंस्कृत और संगठित रूप देने में भी अतुलनीय योगदान दिया। उन्हें संसार में कर्म, कर्तव्य और कला का संस्थापक माना जाता है। क्योंकि उन्होंने मानव जीवन को जीने की कला, सामाजिक व्यवस्था की नींव, और विभिन्न व्यावहारिक कौशलों का ज्ञान प्रदान किया।

जैन ग्रंथों में भगवान आदिनाथ को एक ऐसे युग-प्रवर्तक के रूप में देखा जाता है, जिन्होंने उस समय के असंगठित और अज्ञानी समाज को सभ्यता की ओर अग्रसर किया। भगवान आदिनाथ का जन्म त्रेतायुग में हुआ था। यह वह समय था जब धरती पर मानव जीवन अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में था। वे अयोध्या के कुलकर नाभिराय और रानी मरुदेवी के पुत्र थे। जैन ग्रंथ आदिपुराण और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में उनके जन्म और जीवन की घटनाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनका जन्म चैत्र मास की कृष्ण अष्टमी को हुआ था, और उनके जन्म के साथ ही प्रकृति में शुभ संकेत देखे गए थे। उनके पिता नाभिराय आदर्श शासक थे, और उनकी माता मरुदेवी एक आदर्श नारी के रूप में जानी जाती थीं। भगवान ऋषभदेव का बचपन और युवावस्था राजसी वैभव में बीती। उन्होंने युवावस्था में सुनंदा से विवाह किया और उनके कई पुत्र-पुत्रियाँ हुईं, जिनमें भरत, बाहुबली, सुंदरी और ब्राह्मी प्रसिद्ध हैं। एक राजा के रूप में उन्होंने अपने राज्य को समृद्धि और शांति की ओर ले गए। योग्य समय जानकर संन्यास लेने का निर्णय लिया और अपने पुत्र भरत को राज्य सौंप दिया।

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जैन परंपरा में यह माना जाता है कि भगवान आदिनाथ ने मानवता को 72 पुरुष कलाओं और 64 स्त्री-कलाओं की शिक्षा दी। उस समय तक लोग जंगलों में रहते थे, प्रकृति पर निर्भर थे, और उनके पास जीवन को व्यवस्थित करने का कोई ज्ञान नहीं था। भगवान आदिनाथ ने उन्हें सभ्यता की ओर ले जाने के लिए कई महत्वपूर्ण कौशल सिखाए। जिनमें असि, मसि और कृषि का उल्लेख विशेष रूप से मिलता है।

*कृषि कला* – मानव इतिहास में खेती की शुरुआत को भगवान आदिनाथ से जोड़ा जाता है। उन्होंने लोगों को बीज बोना, फसल उगाना, और भोजन को संरक्षित करना सिखाया। इससे पहले लोग केवल फल और कंद-मूल इकट्ठा करते थे, लेकिन कृषि ने उन्हें आत्म-निर्भर बनाया। यह कला आज भी मानव जीवन का आधार है।

*लेखन और लिपि*- जैन ग्रंथों में उल्लेख है कि भगवान आदिनाथ की पुत्री ब्राह्मी को उन्होंने लेखन कला सिखाई, जिसके कारण प्राचीन ब्राह्मी लिपि का नामकरण हुआ। यह लिपि ज्ञान को संरक्षित करने और अगली पीढ़ियों तक पहुँचाने का माध्यम बनी।

*गणित और मापन*- उनकी दूसरी पुत्री सुंदरी को गणित का ज्ञान दिया गया। संख्याओं और माप की समझ ने व्यापार, निर्माण, और सामाजिक संगठन को बल दिया।

*हस्तशिल्प और निर्माण*- सर्व प्रथम मिट्टी के बर्तन बनाना, घरों का निर्माण, और वस्त्र बुनाई जैसी कलाएँ भी उनकी देन थीं। इससे लोगों का जीवन अधिक सुविधाजनक और सौंदर्यपूर्ण हुआ।

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*संगीत और नृत्य*- सांस्कृतिक विकास के लिए उन्होंने संगीत, नृत्य और कला के सौंदर्य पक्ष को भी प्रोत्साहित किया। यह मानव मन को शांति और आनंद देने का साधन बना।

भगवान आदिनाथ ने केवल व्यावहारिक कलाएँ ही नहीं सिखाईं, बल्कि समाज को संगठित करने के लिए नियम और व्यवस्थाएँ भी स्थापित कीं। उस समय तक लोग असंगठित समूहों में रहते थे, लेकिन उन्होंने विवाह प्रथा की शुरुआत की, जिससे परिवार का ढाँचा बना। उन्होंने समाज को तीन वर्गों – क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – में विभाजित किया, जो उस समय की आवश्यकताओं के अनुसार कार्य-विभाजन का आधार था। इसके अलावा, उन्होंने राज्य संचालन के नियम बनाए और उनका पुत्र भरत पहला चक्रवर्ती सम्राट बना। भरत के नाम पर ही भारत देश का नाम पड़ा, जो उनके प्रभाव को दर्शाता है। आध्यात्मिक कला और तीर्थंकर के रूप में जीवन संन्यास लेने के बाद भगवान आदिनाथ ने कठोर तपस्या की। जैन ग्रंथों के अनुसार, उन्होंने एक वर्ष तक बिना भोजन और पानी के ध्यान किया और अंततः केवलज्ञान प्राप्त किया। केवलज्ञान वह अवस्था है जिसमें आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाती है। इसके बाद उन्होंने अपनी पहली देशना दी, जिसमें उन्होंने अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, और आत्म-शुद्धि के सिद्धांत सिखाए। उनकी देशना सुनकर उनके पुत्र भरत और बाहुबली सहित लाखों लोगों ने संन्यास लिया। भगवान आदिनाथ के जीवन में उनकी साधना का प्रमुख स्थान शत्रुंजय नदी के किनारे रहा जो आज पालिताणा तीर्थ के नाम से जाना जाता है। जिसको महत्वपूर्ण सिद्ध क्षेत्र माना जाता है। उनकी निर्वाण-स्थली अष्टापद पर्वत मानी जाती है।

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भगवान आदिनाथ द्वारा सिखाई गई कलाएँ केवल भौतिक कौशल तक सीमित नहीं थीं। इनमें एक गहरा दार्शनिक आधार भी था। उदाहरण के लिए, कृषि कला आत्म-निर्भरता और प्रकृति के साथ संतुलन का प्रतीक थी। लेखन कला ज्ञान के संरक्षण और प्रसार का माध्यम बनी। संगीत और नृत्य आत्मा को शांति और आनंद देने के साधन थे। इस तरह, उनकी हर कला जीवन को संपूर्णता और अर्थ देने वाली थी। आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता आज के युग में भगवान आदिनाथ की शिक्षाएँ और भी प्रासंगिक हो गई हैं। उनकी आत्म-निर्भरता की कला हमें आधुनिक उपभोक्तावाद से बचने की प्रेरणा देती है। उनकी अहिंसा और पर्यावरण के प्रति सम्मान की शिक्षा जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसी समस्याओं के समाधान के लिए जरूरी है। उनकी सामाजिक व्यवस्था हमें संगठन और सहयोग की महत्ता सिखाती है। इस तरह, वे न केवल प्राचीन काल के लिए, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए भी प्रेरणा स्रोत हैं।

भगवान आदिनाथ प्रथम राजा, प्रथम शिक्षक, और प्रथम तीर्थंकर के रूप में मानवता के मार्गदर्शक बने। उनकी शिक्षाओं ने न केवल उस समय के समाज को बदला, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक मजबूत नींव रखी। उनकी कलाएँ – चाहे वह कृषि हो, लेखन हो, या आध्यात्मिक चिंतन – मानव जीवन को समृद्ध करने वाली थीं। आज जब हम उनकी प्रतिमा के सामने नतमस्तक होते हैं, तो हमें उनके उस योगदान को याद करना चाहिए जिसने हमें सभ्यता और संस्कृति का उपहार दिया।

*(संदीप सृजन-विभूति फीचर्स)*

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