कौमुदी महोत्सव भी है दीपावली

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दीपावली अर्थात् दीपों की अवली, संस्कृत के शब्द दीपान्विता से अर्थात् दीप अन्विता, कार्तिक मास की अमावस्या को जब दीप श्रृंखला प्रज्वलित की जाती है, से बना है। विभिन्न पौराणिक प्रसंगों के तिथिवार व लगातार होने की वजह से ”कौमुदी महोत्सव” के नाम से भी दीपमालिका पर्व को जाना जाता है। कौमुद का शाब्दिक अर्थ होता है कार्तिक मास का उत्सव, जब घरों और देवालयों में दीप मालिका सजाई जाती है।
अपने शाब्दिक अर्थ से ही उत्सव का पूर्ण बोध कराने वाले पर्व दीपोत्सव के विषय में पौराणिक, पारंपरिक व ऐतिहासिक मान्यतायें हैं जो पर्व को विशिष्टता का दर्जा देती है। सर्वप्रथम तो आराध्या लक्ष्मी की कथा सर्वाधिक व सर्वमान्य तथ्य के रूप में परंपरागत् ढंग से मान्य की जाती है। लक्ष्मी पूजा – लक्ष्मी के आधि- भौतिक (अर्थात् पंच भूतों से उत्पन्न), आधि दैविक (अर्थात् देवताओं से भी प्रेरित) व आध्यात्मिक स्वरूपों का स्मरण कर की जाती है।
सामाजिक, सार्वजनिक व पौराणिक मान्यता है कि सद्गृहस्थों के गृहों में कार्तिक अमावस्या की अर्धरात्रि के समय जागृत अवस्था में रहने वाले गृहस्थों के साफ सुथरे, दीपोज्वलित स्थानों पर लक्ष्मी जी का आगमन होता है। इस विषय में पौराणिक कथा भी है जो लक्ष्मी जी के इस पर्व के दौरान भक्तों के द्वारा उन्हें प्रसन्न करने की परंपरागत् तैयारियों की मान्यता को भी, स्थापित करती है। इस कथा के अनुसार लक्ष्मी जी को जब राजा बलि की कैद से मुक्त कराकर क्षीरसागर भगवान विष्णु लाये थे- तब कमल की शैय्या में लक्ष्मी जी ने सुख से निद्रा पूर्ण की थी। आज भी लक्ष्मी जी का आसान कमल की पंखुडिय़ों द्वारा निर्मित किया जाता है। सद्गृहस्थों के सुवासित, साफ सुथरे घरों में ही लक्ष्मी जी का वास होता है- इस पारंपरिक मान्यता का आधार भी प्रचलित एक पौराणिक कथा से मिलता है- दानवीर महाराजा बलि जिनके तप से भगवान विष्णु प्रभावित थे। जिनकी दानशीलता की वजह से ही भगवान विष्णु को पाताल लोक जाना पड़ा था, उनका साथ छोड़कर जब लक्ष्मी जी जाने लगी तब राजा इन्द्र ने लक्ष्मी जी से पूछा – हे, देवी आप ऐसे दानवीर, बलशाली राजा का साथ छोड़कर क्यों जा रही हैं? प्रत्युत्तर में माता लक्ष्मी ने कहा-राजन् – जिस मनुष्य के हृदय में घृणा, ईर्ष्या, कपट, छल प्रपंच व धूर्तता भरी हो वह असुरों से भी बदतर है, वहां मैं वास नहीं करती। यही वजह है कि सद्गृहस्थ लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए साफ सफाई रंगरोगन, पूजा, धूप, पुष्प इत्यादि की व्यवस्था करते हैं। हालांकि मन की कलुषता तथा स्वार्थपरक भक्ति का कलयुग में खात्मा तो संभव प्रतीत नहीं होता फिर भी लक्ष्मी प्रसन्न हो, की आकांक्षा हर घर में व्याप्त रहती है।
कौमुदी महोत्सव के अन्य पौराणिक प्रसंगों में प्रमुख है, महोत्सव का प्रथम दिवस ”धनतेरस”। इस दिवस को औषधिविज्ञान के देवता ”धन्वतरि” का पूजन होता है। धन्वतरि का जन्म सागर मन्थन से हुआ था। एक अन्य प्रसंग के अनुसार इसी दिवस में यमराज के पूजन का महत्व भी बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि यमराज को इस दिवस पर दीपदान करने से घर में किसी की असामयिक मृत्यु नहीं होती।
धनतेरस के पश्चात् ”नरक चतुर्दशी” अर्थात् कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ही कृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध किया था। नरकासुर की कैद से मुक्त होकर राजाओं और प्रजाजनों के द्वारा दीपावली जैसा उत्सव मनाया गया था जिसे प्रचलन में छोटी दीवाली कहा जाता है। यह अब भी मनाया जाता है। नरकासुर को गंदगी का प्रतीक मानकर सर्वत्र साफ सुथरा वातावरण बना कर दीप प्रज्वलित किये जाने का चलन है। इसी समय सूर्य तुला राशि से गमन करता है इसका संबंध वणिकों से है – इसी बेला पर बनियों व व्यापारियों का हिसाब किताब आरंभ होता है। नरक चौदस, कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन ही हनुमान जयन्ती मनाने का दिवस भी है। लंका विजय के पश्चात् जब श्रीराम अयोध्या आये तब अयोध्यावासियों ने मंगल उत्सव मनाया था। सीता जी ने प्रसन्न होकर राम भक्त हनुमान को अपने गले की माला दी तो हनुमान उसके राम मय ना होने की दशा में संतुष्ट नहीं हुए। तब सीता माता ने अपने ललाट पर लगे सौभाग्य सिन्दूर को भक्त हनुमान को देते हुए कहा कि इससे बढ़कर महत्व की मेरे पास कोई वस्तु नहीं है, आप इसे सहर्ष धारण कर अजर अमर रहें। इसी प्रसंग के अनुरूप इसी तिथि को हनुमान जन्म महोत्सव मनाते हुए उन्हें तेल व सिन्दूर चढ़ाया जाता है।
कार्तिक अमावस्या से ही नवीन संवत् का आरंभ होता है। जैन मत के अनुसार चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर को इस तिथि पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त शिव पार्वती की द्यूत क्रीड़ा तथा अमावस्या से पितरों की रात्रि का आरंभ भी इस तिथि को होता है। पितरों को मार्ग दिखाने के वास्ते ही आकाशदीप जलाये जाने की प्रथा आरंभ हुई।
गोवर्धन पूजा, कौमुदी उत्सव के चौथे दिवस तथा लक्ष्मी पूजा के दूसरे दिवस विशिष्ट पर्व के रूप में मनायी जाती है। इन्द्र के बजाय जब बृजवासियों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की थी तो कुपित होकर राजा इन्द्र ने बृजवासियों पर प्राकृतिक विपदा को अतिवृष्टि के साथ बृजभूमि पर उतार दिया था। लोक मंगल के प्रणेता कृष्ण ने उसी गोवर्धन पर्वत के आश्रय में बृजवासियों व पशुओं की रक्षा की थी। भारत के कुछ प्रांतों में आज भी ”गोधन कूटना” नामक प्रथा प्रचलन में है। इन्द्र के राजसी मद को चूर चूर करने के लिये स्त्रियां गोबर की आकृति से इन्द्र बनाती हैं जिसकी छाती पर ईटों से बार करके उस आकृति को तोड़ा जाता है।
कौमुदी पर्व का 5 वां उत्सव व पौराणिक प्रसंग भाई दूज, राजा यम और उनकी बहन यमुना के सात्विक भातृ भगिनी प्रेम पर आधारित है।
दीपान्विता का पर्व विभिन्न पौराणिक प्रसंगों का स्मरण दिलाते हुए आल्हादित बेला के साथ प्रति वर्ष हमें संदेश देता है कि, सामाजिक व सार्वजनिक जीवन में आस्था, ईमानदारी, निष्कपट सात्विक प्रेम को निज व्यवहार में लाने का गुण जो कि हम सभी के अन्तर्मन में वास करने वाला वह देव गुण है, जिसे इस उजली बेला में उजागर करने का संदेश होता है – दीपोत्सव।
कौमुदी महोत्सव पर्व विभिन्न राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय, जड़ व चेतन की परिस्थितियों के हल के संदर्भ में जनसामान्य का दृष्टिकोण क्या हों? इस हेतु दिशा-निर्देश भी दे जाता है। धरा की गंदगी का अंत नरकासुर की तरह हो, सत्ता के नशे में चूर सत्ताधीशों का हश्र, ”गोधन कूटना” के प्रतीक स्वरूप करने का सांकेतिक संदेश भी इस पर्व के दौरान मिलता है। पौराणिक प्रसंग के अनुरूप लक्ष्मी जी वहीं वास करती हैं जहां हृदय में घृणा, ईर्ष्या, छल प्रपंच, कपट और धूर्तता ना हो। महाराजा बलि का साथ भी लक्ष्मी जी ने इसी वजह से छोड़ दिया था। लक्ष्मी की आराधना में जुटे सभी हिन्दुस्तानी जन अगर छलप्रपंच, कपट, धूर्तता से दूर रहें तो हमारी भारत भूमि में सर्वत्र लक्ष्मी जी का वास होगा। यही हर वर्ष की तरह इस बार भी दीवाली का संदेश हम सभी के लिये है।

(सुभाष पाण्डे – विभूति फीचर्स)

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