उल्लास एवं समृद्धि का प्रतीक तथा भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सर्वोपरि पर्व दीपावली का कारवां वैदिक युग की ज्ञान ज्योति से चलकर, ऐतिहासिक अंधकारों को चीरता तथा मुगलकाल की संकरी गलियों से गुजरता हुआ आजादी के खुले आंगन और घरों में प्रवेश कर चुका है। चाहे गांव-देहात हो या शहर, महानगर, गली-मोहल्ला हो या फिर बहुमंजिला अपार्टमेंट, क्या बूढ़े और बच्चे सभी के चेहरे पर कार्तिक का महीना एक अलग प्रकार की खुशियों से लबालब चमक लेकर आता है। सभी के तन-मन खिलखिला उठते हैं। कन्या कुमारी से लेकर कश्मीर तक, बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक नवरात्रि से शुरू हुआ यह हर्षोल्लास दीपावली तक अपने चरम पर होता है। यद्यपि युग-युगांतर से जलते आ रहे दीपक और दीपावली के स्वरूप में पौराणिक काल से लेकर अब तक भिन्न-भिन्न काल परिवेश और परिस्थिति के अनुसार अनेकानेक परिवर्तन आये हैं। फिर भी आज किस प्रकार यह पर्व अपव्यय और दुर्घटनाओं के पर्व के रूप में जाना जाने लगा है, वैसी स्थिति पहले कभी नहीं रही। आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व दीपावली की रौनक देखते ही बनती थी। भारी धन के अपव्यय के साथ धूमधड़ाकों की दीपावली मनाते नहीं देखा जाता था। प्रसन्नता व्यक्त करने का एक निराला ही तरीका होता था। चारों ओर झिलमिलाते दीपों की एक के बाद एक अनंत पंक्तियां, मुस्कराते नन्हें बालक, घर-आंगन को लीपती-पोतती रंग बिरंगे परिधानों में सजी कुलवधुएं, अपनी शोखियों और चंचलताओं से नवजीवन उड़ेलती तथा घर के कोने-कोने को दीपों की रोशनी से प्रकाशित करती नव बालाएं, यौवन की देहरी का स्पर्श करती हुई कंदीलों और रंगोली की प्रतिस्पर्धा में लगी यौवनाएं, अपनी आंखों में अनगिनत सपने संजोये और अनजानी उत्सुकताओं को मन में समेटे मस्ती का आलम संजोये नवयुवक तथा अपने वर्तमान को भूलकर अतीत के साथ हास्य-विलास की स्मृतियों को सजाते हुये कभी बेटे के साथ हंसकर तो कभी पौत्र के साथ खेलकर दीपोत्सव मनाते वृद्ध। आबाल वृद्ध, नर-नारी सभी प्रसन्नता पूर्वक सामूहिक रूप से इस पर्व का आनंद लेते थे।
दीपावली पूजन का मूल उद्देश्य यही रहा है कि चारों ओर सुख-समृद्धि, खुशहाली समरसता और ज्ञान का प्रकाश फैले। इसके लिये यह कामना की जाती थी कि मानव समाज के लिये बड़े नहीं भले लोगों की जरूरत है। इसलिये धन की देवी मेहरबान हो और वे अधिक से अधिक धर्म-कर्म कर सकें। पर आज स्थिति बिल्कुल उलट गई है। लोग केवल अपनी स्वार्थपूर्ति तक ही सिमट कर रह गये हैं। अधिक से अधिक धन प्राप्त कर दुनिया भर की सुखसुविधाएं जुटाना ही एक मात्र लक्ष्य बन गया है। जिससे समाज में गैरबराबरी की खाई बढ़ती जा रही है। कहीं खुशियों के अनगिनत दीप जलते है, तो अधिकतर जगहों पर गम और अभावों का अंधेरा पसरा हुआ है। यह कैसी विडंबना है कि जिस देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जी रही है, उसी देश के लोग कुछ समय से मनोरंजन तथा बढ़-चढ़कर अपनी हैसियत दिखाने के लिये करोड़ों रुपयों के पटाखे फूंक डालते हैं। जिससे न केवल असंख्य लोग वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से पीडि़त हो जाते हैं, बल्कि उनका दूषित हवा में सांस तक लेना मुश्किल हो जाता है। ऊपरी दिखावे को सामाजिक प्रतिष्ठा मान लिये जाने के कारण ही मिट्टी के दीयों का स्थान भारी मात्रा में बिजली की झालरों ने ले लिया है। खील बताशों के स्थान पर महंगे-महंगे तोहफे दिये जाने लगे हैं। पड़ोसियों की होड़ में लोग टिड्डी दल की तरह बाजार पर टूटकर अनावश्यक वस्तुएं भी खरीद डालते हैं। जिससे गृह बजट को संतुलित करने में कई माह लग जाते हैं। यह सारा उपक्रम व्यक्ति की औकात का घटिया प्रदर्शन मात्र है। जुएं को तो जैसे सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। क्योंकि उसके खिलाफ आवाज उठाने वाला मध्यम वर्ग आज स्वयं अपनी दमित इच्छाओं और कुंठाओं को सहलाने लगा है। यह वह मध्यमवर्ग है जो अपने से समृद्ध को ललचायी नजरों से देखता है और अपने से पीछे वालों को तिरस्कार से। कभी सामाजिक परिवर्तन का औजार बना यह वर्ग आज आत्मकेंद्रित बनता जा रहा है। प्रत्येक वर्ष दीपोत्सव पर हम माता लक्ष्मी की आराधना करते हैं कि वे अपनी कृपा हमें दें। परंतु सब व्यर्थ चला जाता है। देवी प्रसन्न नहीं होती, बल्कि कुपित होती है। आखिर कुपित क्यों न हो? कहीं लक्ष्मी स्वरूप कुलवधू को दहेज की बलिदेवी पर कुर्बान किया जा रहा है तो कहीं उसे जन्म लेने से पूर्व ही मौत के घाट उतारा जा रहा है। देखा जाय तो देवी आज भी पूरी तरह क्रुद्ध ही है। कहीं दरिद्रता का तांडव नृत्य हो रहा है तो कहीं बाहुबलियों और धनपशुओं के हाथ पांव फैलते जा रहे हैं। करूणा के लिये कोई स्थान नहीं बचा है। अंधकार प्रकाश को निगल रहा है, रात दिन को डस रही है, कोई भूख से मर रहा है, तो कोई प्यास से तड़प रहा है। अन्नदाता किसान आत्महत्या करने को विवश है। कहीं बाढ़ से लोग बेघर हो रहे हैं तो कहीं भूकंप से छाती दहल रही है तथा कहीं आतंकवाद का जिन्न निर्दोषों और मासूमों को ग्रास बनाता जा रहा है। ऐसे में हमारे राष्ट्र की शान और प्राण संस्कृति के गौरव को किस प्रकार बरकरार रखा जा सकेगा? यह चिंता और चिंतन का विषय है। जीवन में उजाले की इच्छा हर कोई रखता है। पर इस उजाले की सार्थकता तभी है जब इसकी रौनक मन के अंदर और बाहर समान रूप से हो। जबकि हो यह रहा है कि बाहर दीप आदि जलाकर उजाला तो कर दिया जाता है, लेकिन हमारी आत्मा काजल की कोठरी और मन मलिन ही बना रह जाता है। जब अंतर में छल, कपट, राग, द्वेष, ईर्ष्या, आडंबर और वैचारिक कलुषता भरी हो, ऐसे में क्या बाह्य दीपों का जलाना मात्र ही दीपावली को सार्थक बना पायेगा? प्रत्येक धर्म ने यही संदेश दिया है कि हम धन का सदुपयोग करें। उन लोगों को भी अपनी खुशी में भागीदार बनायें जो अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं। इसलिये जकात या दान की नीवें रखी गई। वास्तविकता तो यह है कि हमने लक्ष्मी के विराट स्वरूप को अपने अंतर्मन में बसाया ही नहीं। जिस लक्ष्मी को हम सर्वोपरि मान बैठे हैं वह तो तृष्णा या लोभ है और जब मन में तृष्णा जन्म ले लेती है तो मन का अशांत होना आवश्यक हो जाता है। वर्तमान का भवन निर्माण अतीत की नींव पर ही किया जाता है। प्रत्येक राष्ट्र एवं जाति अपने बीते युग की स्मृतियां सुरक्षित रखने का प्रयास करती हैं। दीपावली मनाते हुये हम सिर्फ हम नहीं रह जाते, बल्कि अपने को एक पूरे इतिहास के साथ जोड़ते हैं। एक स्मृति-परंपरा को पुनर्जीवित करने की कोशिश करते हैं। कार्तिक कृष्ण चर्तुदशी की रात्रि में पावापुर नगरी में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ। निर्वाण की खबर सुनते ही सुर, असुर, मनुष्य, गंधर्व आदि बड़ी संख्या में वहां एकत्र हुये। रात्रि अंधेरी थी, अत: देवों ने रत्नों के दीपकों का प्रकाश कर निर्वाण उत्सव मनाया और उसी दिन कार्तिक अमावस्या के प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में उनके प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम को ज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई। तभी से प्रतिवर्ष उक्त तिथि को दीपावली का आयोजन होने लगा। यही नहीं भगवान राम के अयोध्या आगमन पर स्वागत हेतु सजाई गई दीपमाला को भी दीपावली की परंपरा से जोड़ा गया। इस प्रकार यह महापर्व भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय वातावरण में पूरी तरह पगकर प्रेरणास्त्रोत प्रमाणित हुआ है। दुर्भाग्य से आज हमारे देश की छाती पर बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग जमते जा रहे हैं जो तन से तो भारतीय है, परंतु मन से पूरे विदेशी, जिनके लिये राष्ट्रीयता और भारतीयता अक्षरों के संयोग के सिवा और कुछ भी नहीं है, जो न अपने पूर्वजों के प्रति कोई सम्मान रखते हैं और न अपने धर्म और उत्सव के प्रति। इसका परिणाम हम सभी को भुगतना पड़ रहा है। यही कारण है हम सभी के अंतर में गहरा अंधकार भरा पड़ा है। हम उसे शत्रु मानकर भयभीत हो रहे हैं और उससे डरकर बाहर के प्रकाश की ओर भाग रहे हैं। यह बाह्यï भौतिक प्रकाश उस प्रकाश तक कभी नहीं ले जा पायेगा जिस प्रकाश का अर्थ ”तमसो मा ज्योर्तिगमय” वाक्य में छिपा है। दीपावली सांस्कृतिक चेतना का मापदंड भी है और राष्टï्रीय एकता की साक्षी भी। गणेश बुद्धि के देवता हैं और लक्ष्मी संपदा की देवी। संपत्तिवान की अपेक्षा बुद्धिमान होना अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि धन का उपार्जन न्याय नीति के आधार पर हो और उसका उपयोग करने में भी विवेकशीलता से काम लिया जाये तभी वास्तविक सुख और समृद्धि आती है। दीपावली मूल रूप से सहृदयता, आपसी भाईचारे और मिठाई के रूप में आपस में मिठास पैदा करने का पर्व है। दरिद्रता के अंधकार में जीने वाले लोगों के घरों में, दिलों में हम प्रकाश की एक किरण भी जला पायें तो समझो कि हमने दीपोत्सव का उद्देश्य सार्थक कर लिया। ठीक ही तो है कि अंधेरे को क्यों धिक्कारें, अच्छा है कि एक दीप जला लें।
(सुषमा जैन – विनायक फीचर्स)
(विनायक फीचर्स)
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